– आर.के. सिन्हा
द्रौपदी मुर्मू वास्तव में मोदी जी का मास्टर स्ट्रोक है। मतदान के समय जिस तरह विपक्षी दलों में फूट पड़ी और क्रॉस वोटिंग हुई, उससे साबित हो गया कि मोदी जी का आदिवासी और महिला कार्ड चल गया। द्रौपदी मुर्मू का देश का अगला राष्ट्रपति निर्वाचित होना निश्चित है। वो आगामी 25 जुलाई को देश के नए राष्ट्रपति पद की शपथ लेंगी। उनसे सारा देश यह अपेक्षा करेगा कि वो अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. प्रणब कुमार मुखर्जी और डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम जैसे महानुभावों की तरह ही गरिमामयी व्यवहार का परिचय देंगी। वो देश के प्रथम नागरिक के रूप में एक नई नजीर स्थापित करेंगी। भारत का यह सौभाग्य ही रहा कि उसे गोरी सरकार से मुक्ति मिलने के बाद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और उनके बाद डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे ज्ञानी, प्रकांड विद्वान और धीर गंभीर राष्ट्रपति मिले। वे संविधान की मर्यादाओं में रहते हुए किसी विशेष अवसर पर राष्ट्रहित में अपना स्टैंड भी लेते थे।
डॉ. जाकिर हुसैन का कार्यकाल भी प्रभावी रहा था। अगर बात डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की करें तो उन्होंने सन 1951 में सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण के बाद इसका उद्घाटन किया था, तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को यह पसंद नहीं आया था। और जो उनके सोमनाथ मंदिर में जाने को सवाल खड़े करते रहे हैं, वे यह जान लें कि उन्हीं की पहल पर राष्ट्रपति भवन परिसर के भीतर मंदिर और मस्जिद दोनों का ही का निर्माण भी हुआ था। संभवत: राष्ट्रपति भवन से सटे ही हैं चर्च और गुरुद्वारा, इसलिए इनके निर्माण की जरूरत महसूस नहीं की गई होगी। राजेन्द्र बाबू और उनकी पत्नी श्रीमती राजवंशी देवी प्रति वर्ष दिवाली, ईद, क्रिसमस, बाबा नानक जन्मदिन आदि त्यौहार पूरे राष्ट्रपति भवन के सैकड़ों कर्मचारियों के साथ मनाते थे।
अगर बात डॉ. प्रणब कुमार मुखर्जी की करें तो वे भी देश के एक तरह से आदर्श राष्ट्रपति रहे। उन्होंने राष्ट्रपति पद पर रहते हुए भारत के शत्रुओं की कमर तोड़ने में एक निर्णायक भूमिका अदा की थी । डॉ. प्रणब कुमार मुखर्जी की हरी झंडी मिलने के बाद ही अफजल गुरु, अजमल कसाब और याकूब मेमन जैसे देश के दुश्मनों को फांसी संभव हुई। राष्ट्रपति के रूप में उनके कार्यकाल की अहम बात यह थी कि उन्होंने दया याचिकाओं को लेकर भरपूर सख्ती अपनाई। उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों का इस लिहाज से प्रदर्शन याद करने लायक भी नहीं रहा। वे तो ऐसी फाइलों को दबाकर बैठे ही रहते थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ज्ञान के सागर थे। वे अगर सियासत में न आते तो संवैधानिक मामलों के ख्यात विशेषज्ञ, इतिहासकार या प्रखर लेखक भी हो सकते थे। उनकी स्मरण शक्ति अदभुत थी। उन्हें पचास-साठ साल पुरानी घटनाएं तिथियों के साथ याद रहा करती थीं। वे राजनीति की दुनिया में इतनी लंबी पारी खेलने के बाद भी बेदाग रहे। उन पर कभी किसी ने कोई हल्का आरोप लगाने की भी हिमाकत नहीं की । इन सब गुणों के कारण उन्हें सब आदर देते थे। बाद में चलकर उन्हें देश ने अपना सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न भी दिया। लेकिन, सारा देश तो उन्हें पहले से ही देशरत्न कहता था।
इस बीच आमतौर पर भारत के राष्ट्रपति के रूप में नीलम संजीव रेड्डी के कार्यकाल की कोई खास चर्चा नहीं होती है। जब उनका देश का राष्ट्रपति बनना तय हो गया तो उन्होंने इच्छा जताई थी कि वे राष्ट्रपति भवन से इतर किसी छोटे आवास में रहना चाहेंगे। वे इस तरह की इच्छा जताने वाले अब तक के एक मात्र राष्ट्रपति रहे। उनसे पहले या बाद के किसी भी राष्ट्रपति ने राष्ट्रपति भवन के स्थान पर किसी अन्य जगह पर रहने के बारे में नहीं सोचा। नीलम संजीव रेड्डी को समझाया गया कि सुरक्षा और अन्य कारणों के चलते यह संभव नहीं होगा कि उनके लिए राष्ट्रपति भवन के स्थान पर कहीं अन्य रहने की व्यवस्था की जाए। तब उन्होंने 340 कमरों वाले भव्य राष्ट्रपति भवन में ही रहने का फैसला लिया पर वे और उनका परिवार राष्ट्रपति भवन के कुछ कमरों को ही इस्तेमाल करते थे। सन 1977 के आम चुनाव में जब इंदिरा गांधी की पराजय हुई, उस समय नवगठित जनता पार्टी ने नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया। वे राष्ट्रपति पद से रिटायर होने के बाद अपने गृह राज्य आंध्र प्रदेश वापस चल गए थे।
निश्चित रूप से प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का राष्ट्रपति बनना देश के लिए गौरव का क्षण रहा। वे राष्ट्रपति बनने से पहले ही अग्नि और पृथ्वी मिसाइलों को विकसित करके देश के नायक बन चुके थे। वे देश के पहले अविवाहित राष्ट्रपति थे। अब्दुल कलाम व्यक्तिगत जिन्दगी में बेहद अनुशासन प्रिय थे। इन्होंने अपनी जीवनी विंग्स ऑफ फायर भारतीय युवाओं को मार्गदर्शन प्रदान करने वाले अंदाज में लिखी है। वे राष्ट्रपति भवन में रहते हुए और उसके बाद भी युवाओं के बीच रहना पसंद करते थे। वे उनके साथ अपने जीवन के अनुभवों को शेयर करते थे। विदेशी राष्ट्राध्यक्ष और प्रधानमंत्री भी उनसे मिलकर अपने को समृद्ध महसूस करते थे। देश का बच्चा-बच्चा उन्हें मिसाइल मैन कहकर याद करता है।
माफ करें कि राष्ट्रपति पद की गरिमा को बट्टा लगना चालू हुआ राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के समय से। उन्होंने 25 और 26 जून, 1975 की रात को आपातकाल के आदेश पर दस्तखत करके देश में आपातकाल लागू कर दिया था। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा जी की आवाज में संदेश सुना- “भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।” …लेकिन, सच तो इंदिरा की घोषणा से ठीक उलटा था। देश भर में हो रही गिरफ्तारियों के साथ आतंक का दौर पिछली रात से ही शुरू हो गया था। फखरुद्दीन अली अहमद जैसे औसत इंसान को कांग्रेस ने राष्ट्रपति भवन भेजकर देश के साथ अन्याय ही किया। उसके बाद कांग्रेस वी.वी.गिरी, ज्ञानी जैल सिंह, आर. वेंकटरामण, प्रतिभा देवीसिंह पाटिल जैसों को राष्ट्रपति भवन भेजती रही। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन सबका कार्यकाल बेहद औसत रहा। ये सभी अच्छे इंसान थे, लेकिन राष्ट्रपति पद की गरिमा के अनुकूल थे या नहीं इसपर तो इतिहास में बहस चलती ही रहेगी ।
प्रतिभा देवीसिंह पाटिल को भारत की प्रथम महिला राष्ट्रपति बनने का गौरव प्राप्त है। वे 2007 से 2012 तक इस पद पर रहीं। प्रतिभा पाटिल राष्ट्रपति भवन छोड़ने के बाद पुणे शिफ्ट कर गई थीं। वहां पर सरकार ने उन्हें एक सरकारी बंगला आवंटित कर दिया था। उन्होंने अपने पद से मुक्त होने से पहले ही सरकार से आग्रह किया था कि उन्हें पुणे में बंगला आवंटित कर दिया जाए। यानी उन्होंने दिल्ली में न रहने का मन बना लिया था। उनके लिए पुणे में जो बंगला आवंटित किया गया था उससे वह खुश नहीं थी। उन्होंने सरकार से कहा है कि उनके लिए जो बंगला तैयार किया जा रहा है वह बंगला छोटा रहेगा। उन्होंने कहा था कि उनके परिवार के सदस्यों की संख्या ज्यादा है। इसलिए उन्हें बड़ा बंगला मिले। सरकार ने उनकी मांग को मान लिया था। जाहिर है कि उनकी इस हल्की मांग करने से उन्होंने अपने पद-कद के साथ न्याय तो नहीं किया। ओड़िशा के आदिवासी समाज से संबंध रखने वाली द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने पर सारा देश खासकर महिलायें और पूरा आदिवासी और दलित वंचित समाज प्रसन्न होगा। वो देश की 135 करोड़ जनता को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से और भी गौरवान्वित कर सकती हैं, उनसे ऐसी ही अपेक्षा देश करता है ।
(लेखक, वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)