Friday, November 22"खबर जो असर करे"

बढ़ती आबादी के खतरे भी कम नहीं

– योगेश कुमार गोयल

यूनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फंड (यूएनएफपीए) के मुताबिक दुनिया की आबादी आठ अरब हो गई है, जिसे सात से आठ अरब होने में केवल 12 वर्ष का समय लगा है। जबकि दुनिया की आबादी को 1 से 2 अरब होने में 100 साल से भी ज्यादा लगे थे। हालांकि दुनिया की आबादी तेजी से बढ़ने को संयुक्त राष्ट्र मानवता की उपलब्धियों के प्रमाण के रूप में देख रहा है और यह सही भी है कि इसमें सबसे बड़ा योगदान शिक्षा तक पहुंच का विस्तार, स्वास्थ्य देखभाल में प्रगति, लैंगिक असमानता में कमी इत्यादि कारकों का है लेकिन भारत जैसे विकासशील देशों के लिए बढ़ती आबादी के खतरे भी कम नहीं हैं।

यूएन की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की आबादी एक अरब बढ़ने में भारत की हिस्सेदारी 17.7 करोड़ और चीन की 7.3 करोड़ रही यानी आबादी के बढ़ते ग्राफ के मामले में भारत चीन से बहुत निकल गया है तथा अगले साल तक भारत की आबादी चीन से भी ज्यादा हो जाएगी यानी भारत दुनिया का सर्वाधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। विश्व की कुल आबादी में से करीब 18 फीसदी लोग अब भारत में रहते हैं और दुनिया के हर 6 नागरिकों में से एक से ज्यादा भारतीय है। अगर भारत में जनसंख्या की सघनता का स्वरूप देखें तो जहां 1991 में देश में जनसंख्या की सघनता 77 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर थी, 1991 में बढ़कर वह 267 और 2011 में 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हो गई।

भारत में बढ़ती आबादी के बढ़ते खतरों को इसी से बखूबी समझा जा सकता है कि दुनिया की कुल आबादी का करीब छठा हिस्सा विश्व के महज ढाई फीसदी भूभाग पर रहने को अभिशप्त है। जाहिर है कि किसी भी देश की जनसंख्या तेज गति से बढ़ेगी तो वहां उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव भी उसी के अनुरूप बढ़ता जाएगा। आंकड़ों पर नजर डालें तो आज दुनियाभर में करीब एक अरब लोग भुखमरी के शिकार हैं और अगर वैश्विक आबादी बढ़ती रही तो भुखमरी की समस्या बहुत बड़ी वैश्विक समस्या बन जाएगी, जिससे निपटना इतना आसान नहीं होगा। बढ़ती आबादी के कारण ही दुनियाभर में तेल, प्राकृतिक गैसों, कोयला इत्यादि ऊर्जा के संसाधनों पर दबाव अत्यधिक बढ़ गया है, जो भविष्य के लिए बड़े खतरे का संकेत है। जिस अनुपात में भारत में आबादी बढ़ रही है, उस अनुपात में उसके लिए भोजन, पानी, स्वास्थ्य, चिकित्सा इत्यादि सुविधाओं की व्यवस्था करना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं है।

इस समय चीन की आबादी दुनिया में सर्वाधिक 1.426 अरब है और उसके बाद भारत की आबादी 1.412 अरब है। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि 2050 तक भारत की आबादी 1.668 अरब हो जाएगी जबकि चीन की आबादी उस समय 1.317 अरब रहने का अनुमान है। हालांकि हम इस बात पर थोड़ा संतोष व्यक्त कर सकते हैं कि जनसंख्या वृद्धि दर के वर्तमान आंकड़ों की देश की आजादी के बाद के शुरुआती दो दशकों से तुलना करें तो 1970 के दशक से जनसंख्या वृद्धि दर में निरन्तर गिरावट दर्ज की गई है लेकिन यह गिरावट दर काफी धीमी रही है। आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में पिछले कुछ दशकों में जनसंख्या वृद्धि की गति धीमी हुई है। वर्ष 1971-81 के मध्य वार्षिक वृद्धि दर 2.5 प्रतिशत थी, जो 2011-16 में घटकर 1.3 प्रतिशत रह गई। जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार को नियंत्रित रखने के लिए औसत प्रजनन दर 2.1 होनी चाहिए और कुछ समय पूर्व राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण द्वारा जारी आंकड़ों से पता चला था कि देश में यह दर 2.2 से घटकर 2 हो गई है तथा राहत की बात यह भी है कि मुस्लिम समुदाय में भी औसत प्रजनन दर तेज गिरावट के साथ 2.36 हो गई है।

पिछले कुछ दशकों में देश में शिक्षा और स्वास्थ्य के स्तर में निरन्तर सुधार हुआ है, उसी का असर माना जा सकता है कि धीरे-धीरे जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट आई है लेकिन यह इतनी भी नहीं है, जिस पर जश्न मनाया जा सके। बेरोजगारी और गरीबी ऐसी समस्याएं हैं, जिनके कारण भ्रष्टाचार, चोरी, अनैतिकता, अराजकता और आतंकवाद जैसे अपराध पनपते हैं और जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण किए बिना इन समस्याओं का समाधान संभव नहीं है। विगत दशकों में यातायात, चिकित्सा, आवास इत्यादि सुविधाओं में व्यापक सुधार हुए हैं लेकिन तेजी से बढ़ती आबादी के कारण ये सभी सुविधाएं भी बहुत कम पड़ रही हैं। जनसंख्या वृद्धि की वर्तमान स्थिति की भयावहता के मद्देनजर पर्यावरण विशेषज्ञों की इस चेतावनी को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि यदि जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार में अपेक्षित कमी लाने में सफलता नहीं मिली तो निकट भविष्य में एक दिन ऐसा आएगा, जब रहने के लिए धरती कम पड़ जाएगी और बढ़ती आबादी जरूरी संसाधनों को निगल जाएगी। विश्वभर में अभी भी डेढ़ अरब से ज्यादा लोग ढलानों पर, दलदल के करीब, जंगलों में तथा ज्वालामुखी क्षेत्र जैसी खतरनाक जगहों पर रह रहे हैं।

जहां तक प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या का सवाल है तो यह भी कम चिन्ता का विषय नहीं है कि जनसंख्या वृद्धि दर घटते जाने के साथ-साथ प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या भी घट रही है। निसंदेह यह सब पुत्र की चाहत में कन्या भ्रूणों को आधुनिक मशीनों के जरिये गर्भ में ही नष्ट किए जाने का ही दुष्परिणाम है। जनसंख्या वृद्धि में अपेक्षित कमी लाने के साथ-साथ जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रमों में इस बात का ध्यान रखे जाने की भी नितांत आवश्यकता है कि पुरुष और महिलाओं की संख्या का अनुपात किसी भी सूरत में न बिगड़ने पाए क्योंकि यदि यह अनुपात इसी कदर गड़बड़ाता रहा तो आने वाले समय में इसके कितने घातक परिणाम सामने आएंगे, उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

बढ़ती आबादी का सर्वाधिक चिंतनीय पहलू यह है कि इसका सीधा प्रभाव पर्यावरण पर पड़ रहा है। विश्व विकास रिपोर्ट के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों से जितनी भी आमदनी हो रही है, वह किसी भी तरह पूरी नहीं पड़ रही, दशकों से यही स्थिति बनी है और इसे लाख प्रयासों के बावजूद सुधारा नहीं जा पा रहा। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक सन् 2050 तक विश्व की दो तिहाई आबादी नगरों में रहने लगेगी और तब ऊर्जा, पानी तथा आवास की मांग और बढ़ेगी जबकि बहुत से पर्यावरणविदों का मानना है कि सन् 2025 तक ही विश्व की एक तिहाई आबादी समुद्रों के तटीय इलाकों में रहने को विवश हो जाएगी और इतनी जगह भी नहीं बचेगी कि लोग सुरक्षित भूमि पर घर बना सकें। इससे तटीय वातावरण तो प्रदूषित होगा ही, पर्यावरण का संतुलन भी बिगड़ जाएगा।

बहरहाल, भारत में जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण पाने के लिए हमें कुछ कठोर और कारगर कदम उठाते हुए ठोस जनसंख्या नियंत्रण नीति पर अमल करने हेतु कृतसंकल्प होना होगा ताकि कम से कम हमारी भावी पीढ़ियां तो जनसंख्या विस्फोट के विनाशकारी दुष्परिणामों भुगतने से बच सकें।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)