Friday, November 22"खबर जो असर करे"

सृष्टि का आधार है परिवार, इसे बिखरने न दें

– सियाराम पांडेय ‘शांत’

पूरी दुनिया 15 मई को विश्व परिवार दिवस मनाएगी। संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर यह सहमति बनी थी कि साल में एक दिन विश्व परिवार दिवस मनाया जाए। वर्ष 1994 में पहली बार अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस मनाया गया था। तब से अब तक यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। हालांकि विश्व परिवार दिवस मनाने का प्रस्ताव तो संयुक्त राष्ट्र संघ में 1989 में ही पारित हो गया था लेकिन इसे व्यावहारिक धरातल पर उतरने में पांच साल लग गए। खैर, देर आयद-दुरुस्त आयद। परिवार को जोड़े रखने का, उससे जुड़े रहने की पहल का ही नतीजा है कि दुनिया भर में हर साल अलग-अलग थीम पर विश्व परिवार दिवस मनाया जाता है। लेकिन, इस तरह के नवोन्मेष की जरूरत क्यों पड़ी, यह अपने आप में विचार का विषय है। भारत तो सदियों से पूरी धरती को अपना परिवार मानता रहा है। उसने वसुधैव कुटुम्बकम का मंत्र यूं ही नहीं दिया था।

कोलंबस और वास्को डिगामा की खोज से पहले भी भारत की अपनी विस्तृत सीमाएं थीं। दुनिया भर से उसके रिश्ते-नाते थे। दोस्ती-यारी थी। पुराणों और धर्म ग्रंथों में इसका जिक्र मिलता है। माता पृथ्वी पुत्रोहम पृथिव्या: या माता च पार्वती देवी पिता देवो महेश्वर: । बांधवा: शिवभक्ताश्च स्वदेशोभुवनस्त्रयं की बात भारत में अरसे से कही जाती रही है और आज भी कही जाती है। अगर दुनिया के देशों ने इसी भारतीय सूत्र पर अमल किया होता तो उनकी सीमाओं पर युद्ध के हालात ही क्यों बनते? अगर विश्व परिवार दिवस को मनाने की जरूरत पड़ी है तो हो न हो इसके कारण और निवारण दोनों पक्षों पर विचार करना होगा। जिस तरह से दुनिया भर में परिवार नाम की संस्था बिखर रही है। संयुक्त परिवार टूट रहे हैं और उनकी जगह एकल परिवार ले रहे हैं। पति-पत्नी बच्चों को भी नहीं पाल पा रहे हैं। उन्हें पालनाघर और हॉस्टलों में डाल रहे हैं। उससे बच्चों का विकास बाधित हो रहा है। वे कुंठित, अवसादग्रस्त और चिड़चिड़े हो रहे हैं। ऐसे में आदर्श परिवार और आदर्श समाज की कल्पना कोई करे भी तो किस तरह?

परिवार प्रतीकों से नहीं, प्यार और सहकार से चलते हैं। बच्चे को विलायत भेजकर उच्च शिक्षा तो दिलाई जा सकती है लेकिन आदर्शों, सिद्धांतों और संस्कारों की दीक्षा तो परिवार में रहकर ही संभव है। दादा-दादी, नाना-नानी की गोद में कहानियों को सुनते हुए, हंसते, खिलखिलाते हुए बढ़ना बचपन को एक नई ताजगी, नई ऊर्जा और नई संचेतना देता है। रिश्तों की गोद में बैठा बच्चा नए-नए अनुभव प्राप्त करता है। बच्चे को कठिनाइयों से जूझने की जो समझ परिवार से मिलती है, वह दुनिया के किसी भी मैनेजमेंट कॉलेज या विश्वविद्यालय में नहीं मिल सकती। परिवार एक ऐसी खदान है, जहां से मानव रत्न निकलते हैं। वह ऐसी टकसाल है, जहां से हीरे, मोती, जवाहरात निकलते हैं। लेकिन भौतिकता के व्यामोह में फंसकर हम खुद को परिवार से अलग करते जा रहे हैं। व्यक्ति तब और एकाकी हो जाता है, जब वह अपनों से, अपने परिवार से अलग रहने की सलाह दूसरों से लेने लगता है और अपने विवेक को गिरवी रख देता है।

भारतीय चिंतकों की बातों पर गौर करें तो यहां हर व्यक्ति के 16 संस्कार किए जाते हैं। यह कुछ उसी तरह का है जैसे कोई नवविवाहिता सोलह शृंगार कर रही हो। नीति भी कहती है कि संस्कारहीन व्यक्ति पशु से भी गया-गुजरा होता है। आचार्य भवभूति अगर उत्तरराम चरितम में तिर्यगगता वरममी न परम मनुष्या: लिखते हैं तो यहां उनका इशारा मनुष्य की चालबाजियों और शरारतों की ओर है। पशु-पक्षी भी अपने परिवार के साथ सुखपूर्वक रहते हैं लेकिन मनुष्य है कि परिवार के साथ रहने में परेशानी महसूस कर रहा है। यह जानते हुए भी कि मां के गर्भ में आने से बच्चे के तीन साल तक का होने तक उसकी 80 प्रतिशत शिक्षा पूरी हो जाती है, पारिवारिक मूल्यों, परंपराओं, आदर्शों और संस्कारों की उपेक्षा इस देश और विश्व को कहां ले जाएगी, इस पर गहन आत्ममंथन की जरूरत है ।

पहले परिवार भावना प्रधान होते थे। संवेदना प्रधान होते थे लेकिन अब वे वासना प्रधान हो गए हैं। स्वार्थ प्रधान हो गए हैं। समस्या की जड़ यहां है। ऐसे में परिवार को संजीवनी देने वाला नेह जल सूख रहा है। जब तक परिवार धर्म से जुड़े थे, कर्तव्य बोध से जुड़े थे, तब तक वे धरती के स्वर्ग थे लेकिन अब वह बात नहीं रही। अगर एक दिन के जागृति अभियान चलाने भर से परिवारों को मजबूत होना होता तो वे कब के मजबूत हो चुके होते। आर्थिक तौर पर भी और नैतिक व सांस्कृतिक तौर पर भी । जब तक हम लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति से विमुख नहीं होते, अपनी मूल गुरुकुल परंपरा की ओर नहीं लौटते, तब तक परिवार, समाज, देश और प्रदेश को विकसित नहीं कर सकते । मन, वाणी और कर्म के मिलन के बिना त्रिवेणी स्नान का वैसे भी क्या मतलब है?

परिवार बनता है त्याग और तपस्या से। बड़े-छोटे की भावनाओं के समादर से। एक देशी कहावत है कि दस-पांच की लाठी और एक का बोझ। एक सुलझा हुआ परिवार बड़े से बड़े दायित्व मिल-बांटकर पूरे कर लेता है।लेकिन एकल परिवार के लिए वही जी का जंजाल बन जाता है।

मानसकार ने भी लिखा है कि जहां सुमति तंह सम्पति नाना। जहां कुमति तंह विपति निधाना। अब यह हमें तय करना है कि हम सामाजिक, पारिवारिक जीवन चाहते हैं, मन, वाणी और कर्म के मिलन की त्रिवेणी में स्नान कर शक्तिपुंज बनना चाहते हैं या अपने में ही खोया हुआ कमजोर इंसान बनने में गौरव की अनुभूति करना चाहते हैं। हमें अपनी शिक्षा का, संस्कार का, जीवन व्यवहार का सांचा ठीक करना होगा। इसके बिना हम मधुरिम भविष्य के बेहतरीन खिलौने बना ही नहीं सकते।

धर्म जीवात्मा की भूख है। परिवार को संस्कारवान बनाने और दूसरों को नसीहत देने का इससे बड़ा कोई अन्य विकल्प नहीं है। परिवारों का विघटन किसी अभिशाप से कम नहीं है। इसलिए जरूरी है कि एक आदर्श परिवार की कल्पना की जाए और इसके लिए जरूरी है कि खुद भी आदर्श नागरिक बना जाए। राम जैसा पुत्र चाहिए तो दशरथ और कौशल्या जैसे मां-बाप बनना होगा। इसके बिना तो बात बनती नहीं। परिवार बच्चे की पहली पाठशाला होती है और हम नींव के बिना शिक्षा और संस्कारों की इमारत खड़ी करना चाहते हैं। यह भला कैसे संभव है?

परिवार सृष्टि का आधार है। यह संसार की संरचना का भगवान सदाशिव का प्रथम पावन विचार है। एकोहम बहुस्याम: का शिव संकल्प है। शिव से शक्ति और फिर विष्णु और ब्रह्मा की उत्पत्ति सायास नहीं है। विष्णु को तपस्या करने का आदेश, प्रणव नाद की उत्पत्ति के पीछे के अपने मंतव्य है। भगवान शिव ने ही ब्रह्मा जी को सृष्टि रचना का आदेश दिया था। अपने तरह की एक तपस्या है। ब्रह्मा जी तपस्या करते और उस तपस्या के बल पर ही संतान उत्पत्ति करते। अपनी संतानों से भी वे कुछ इसी तरह की अपेक्षा करते। ब्रह्मा जी लौकिक संसार बसाना चाहते थे लेकिन उनके मानसपुत्र नारद जी की कल्पना में भक्ति का संसार था। सो उन्होंने ब्रह्मा जी के अनेक पुत्रों को भक्ति का उपदेश देकर वैराग्य का पथिक बना दिया और खुद उनके शाप के भाजन बन गए। वे कहीं भी किसी एक जगह पर टिक ही नहीं पाते।

अगर शिवजी अर्द्ध नारीश्वर स्वरूप में ब्रह्मा के सामने प्रकट न हुए होते। फिर नर-नारी के रूप में अलग न हुए होते तो ब्रह्मा जी के मष्तिष्क में युग्म बनाने का विचार आता ही नहीं। इसी के बाद ब्रह्माजी की सृष्टि संरचना का क्रम तेज हुआ। देखा जाए तो परिवार का विचार सबसे पहले भगवान सदाशिव के दिमाग में आया और इसी के साथ उन्होंने काशी के आनंद वन में अपने ही शरीर से प्रकृति यानी शिवा को प्रकट किया। फिर ब्रह्मा और विष्णु को प्रकट किया। ब्रह्मा को सृष्टि रचना, विष्णु को पालन और खुद संहार का दायित्व संभाला। सृष्टि रचना में ब्रह्मा जी के पुत्र प्रजापति दक्ष के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।

देव परिवार, ऋषि परिवार, आदर्श परिवार की कल्पना सबसे पहले भारत भूमि पर हुई थी। भाषा परिवार की नींव भी यहीं रखी गई थी। इसलिए समय आ गया है कि परिवारों को जोड़ने की विश्व की इस पहल का नेतृत्व भी भारत करे। पृथ्वी का हर मनुष्य अपने चरित्र से लोक शिक्षण का दायित्व निभाए कि परिवार ही प्रेम की उत्पादन स्थली है। वर्णाश्रम व्यवस्था में गृहस्थ धर्म को सबसे बड़ा माना गया है। परिवार प्रेम और सहकार का पर्याय है। प्रेम इंसान को मुरझाने नहीं देता और नफरत उसे खिलने नहीं देती। समस्त विश्व के लिए यह समय आत्ममंथन का है कि वह प्रेम से भरा पूरा परिवार चाहेगा या फिर नफरत की आग में खुद भी जलेगा और दूसरों के लिए भी परेशानी का सबब बनेगा।

परिवार यानी एकजुटता, समर्पण, स्नेह, सहयोग का पारावार। परिवार यानी सुख समृद्धि का आधार। हम सब के ही ईश्वर की संतान हैं फिर दुराव-विलगाव क्यों? आओ! इस पर विचार करें। ठंडे दिल से, फुर्सत लेकर। विश्व परिवार दिवस ऐसा ही अवसर है। क्यों न ऐसा विश्व बनाएं जिसमें हथियार नहीं, प्यार का वर्चस्व हो। जब धरती एक है तो हम एक क्यों नहीं हो सकते?

(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)