– आर.के. सिन्हा
राजधानी दिल्ली का पॉश ग्रेटर कैलाश इलाका। यहां समाज के सबसे सफल, असरदार और धनी समझे जाने वाले लोग ही रहते हैं। बड़ी-बड़ी कोठियों के उनके अंदर-बाहर लग्जरी कारें खड़ी होती हैं। लगता है, मानो इधर किसी को कोई कष्ट या परेशानी नहीं है। पर यह पूरा सच नहीं है। अभी हाल ही में यहां के एक बुजुर्गों के बसेरे, जिसे वृद्धाश्रम या एज ओल्ड होम भी कहते हैं, में आग लगने के कारण क्रमश: 86 और 92 वर्षों के दो वयोवद्ध नागरिकों की जान चली गई। जरा सोचिए, कि इस कड़ाके की सर्दी में उन्होंने कितने कष्ट में प्राण त्यागे होंगे। इस वृद्धाश्रम में रहने वाले हरेक व्यक्ति को हर माह सवा लाख रुपये से अधिक देना होता है। यानी यहां पर सिर्फ धनी-सम्पन्न परिवारों के बुजुर्गों को ही रख सकते हैं। अफसोस कि इन बुजुर्गों को इनके घर वालों ने इनके जीवन के संध्याकाल में घर से बाहर निकाल दिया। यह कहानी देश के उन लाखों बुजुर्गों की है, जिन्हें उनके परिवारों में बोझ समझा जाने लगा है। अगर इनका आय का कोई स्रोत नहीं है तो इनका जीवन वास्तव में कष्टकारी है।
देखिए, भारत में तेजी से बढ़ती जा रही है बुजुर्गों की आबादी। एक अनुमान के मुताबिक, 14 बरस बाद, यानी 2036 में हर 100 लोगों में से केवल 23 ही युवा बचेंगे, जबकि 15 लोग बुजुर्ग होंगे। सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार, फिलहाल देश के हर 100 लोगों में से 27 युवा और 10 बुजुर्ग हैं। 2011 में भारत की आबादी 121.1 करोड़ थी। 2021 में 136.3 करोड़ पहुंच गई। इसमें 27.3 फीसद आबादी युवाओं, यानी 15 से 29 साल की आयु वालों की है। यूथ इन इंडिया 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक, 2036 तक युवाओं की संख्या ढाई करोड़ कम हो जाएगी। फिलहाल देश में युवाओं की आबादी वर्तमान में 37.14 करोड़ है। यह 2036 में घटकर 34.55 करोड़ हो जाएगी। देश में इन दिनों 10.1 फीसद बुजुर्ग हैं, जो 2036 तक बढ़कर 14.9 प्रतिशत हो जाएंगे। मतलब बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है।
जिस देश में बुजुर्गों की तादाद इतनी तेजी से बढ़ रही है, वहां पर सरकार को बुजुर्गों के लिए कोई ठोस योजना तो बनानी ही होगी, ताकि वे अपने जीवन का अंतिम समय आराम से वक्त गुजार सकें। उन्हें दवाई और दूसरी मेडिकल सुविधाएं मिलने में दिक्कत न हो। उनका बुढ़ापा खराब न हो।
राजधानी दिल्ली के राजपुर रोड में भी एक बुजुर्गों का बसेरा है। यहां पर करीब 35-40 बुजुर्गों के लिए रहने का स्पेस है। इसे सेंट स्टीफंस कॉलेज तथा सेंट स्टीफंस अस्पताल को स्थापित करने वाली संस्था “दिल्ली बद्ररहुड सोसायटी” चलाती है। इनके कुछ बसेरे अन्य स्थानों और शहरों में भी हैं। यहां पर भी बेबस और मजबूर वृद्ध ही रहते हैं। ये रोज सुबह से इंतजार करने लगते हैं कि शायद कोई उनके घर से उनका हाल-चाल जानने के लिए आए। पर उनका इंतजार कभी खत्म ही नहीं होता। कभी-कभार ही किसी बुजुर्ग का रिश्तेदार कुछ मिनटों के लिए आकर औपचारिकता पूरी कर निकल जाता है। यहां पर रहने वालों से कोई पैसा नहीं लिया जाता। उन्हें दो वक्त का भोजन, सुबह का नाश्ता और चाय भी मिल जाती है। कुछ दानवीरों की मदद से संचालित दिल्ली ब्रदरहुड सोसायटी की तरह से चलाए जा रहे बुजुर्गों के बसेरे देश में गिनती के ही होंगे। वर्ना तो सब पैसा मांगते है किसी बुजुर्ग को अपने यहां रखने के लिए। हालांकि यह बात भी है कि बसेरा चलाने के लिए पैसा तो चाहिए ही। पैसे के बिना काम कैसे होगा।
दरअसल बुजुर्गों के लिए स्पेस घटने के कई कारण समझ आ रहे हैं। जब से संयुक्त परिवार खत्म होने लगे तब से बुजुर्गों के सामने संकट पैदा होने लगा है। संयुक्त परिवारों में तो उम्र दराज हो गए लोगों का ख्याल कर लिया जाता था। तब बच्चे और बुजुर्ग सबके- साझे हुआ करते थे। उन्हें परिवार के सभी सदस्य मिलजुल कर देख लिया करते थे। परिवार का बुजुर्ग सबका आदरणीय होता था। संयुक्त परिवारों के छिन्न-भिन्न होने के कारण स्थिति वास्तव में विकट हो रही है। एक दौर था जब बिहार और उत्तर प्रदेश के हरेक घर के आगे सुबह परिवार के बुजुर्ग सदस्य सुबह चाय पीते हुए अखबार पढ़ रहे होते थे। जिन परिवारों में बुजुर्ग नहीं होते थे उन्हें बड़ा ही अभागा समझा जाता था। पर अब इन राज्यों में भी बुजुर्ग अकेले रहने को अभिशप्त हैं। मुझे इन राज्यों के बैंगलुरू, मुंबई, दिल्ली, गुरुग्राम में रहने वाले अनेक नौकरीपेशा लोग मिलते हैं। वे अच्छा-खासा कमा रहे हैं।
उनसे बातचीत करने में पता चलता है कि उनके साथ उनके माता-पिता नहीं रहते। वे अपने पुश्तैनी घरों में ही हैं। इसका मतलब साफ है कि अगर वे संयुक्त परिवारों में नहीं हैं तो वे राम भरोसे ही हैं। कारण बहुत साफ है। अब बिहार-उत्तर प्रदेश का समाज भी पहल की तरह नहीं रहा। वहां पर भी कई तरह के अभिशाप आ गए हैं। एक बात समझ ली जाए कि हमे अपने बुजुर्गों के ऊपर पर्याप्त ध्यान देना ही होगा। उनका अपने परिवारों को शिक्षित करने से लेकर राष्ट्र निर्माण में अमूल्य योगदान रहता है। गांधी जी और गुरुदेव रविन्द्रनाथ टेगौर के सहयोगी रहे दीनबंधु सीएफ एन्ड्रूज से संबंध रखने वाली दिल्ली ब्रदरहुड़ सोसायटी की तरफ से चलाए जाने वाले बसेरों में तो उन बुजुर्गों का अंतिम संस्कार भी करवाया जाता है जिनका निधन हो जाता है। कई बार सूचना देने पर भी दिवंगत बुजुर्गों के सगे-संबंधी पूछने तक नहीं आते। तब बसेरे में काम करने वाले ही दिवंगत इंसान का अंतिम संस्कार करवा देते हैं। जरा सोच लीजिए कि कितना कठोर और पत्थर दिल होता जा रहा है समाज।
केंद्र और राज्य सरकारों को मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों,गिरिजाघरों वगैरह में भी बुजुर्गों के बसेरे खोलने के बारे में विचार करना चाहिए। इनके पास पर्याप्त स्पेस भी होता है। इनमें कुछ बुजुर्ग रह ही सकते हैं। वैसे सबसे आदर्श स्थिति तो वह होगी जब परिवार ही अपने बुजुर्ग सदस्यों का ख्याल करेंगे। आखिर कौन चाहता है कि वह इतना अभागा हो कि घर से बाहर अपने बुढ़ापे के दिन गुजारे।
(लेखक, वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)