– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उप राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में जगदीप धनखड़ की जीत ने देश की भावी राजनीति के अस्पष्ट पहलुओं को भी स्पष्ट कर दिया है। सबसे पहली बात तो यह कि उन्हें प्रचंड बहुमत मिला है। उन्हें कुल 528 वोट मिले और मार्गरेट अल्वा को सिर्फ 182 वोट। यानी धनखड़ को लगभग ढाई-तीन गुने ज्यादा वोट। भाजपा के पास इतने सांसद तो दोनों सदनों में नहीं हैं। फिर कैसे मिले इतने वोट? जो वोट तृणमूल कांग्रेस के धनखड़ के खिलाफ पड़ने थे, वे नहीं पड़े। वे वोट तटस्थ रहे। इसका कोई कारण आज तक बताया नहीं गया।
धनखड़ ने राज्यपाल के तौर पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की जैसी खाट खड़ी की, वैसी किसी मुख्यमंत्री की क्या किसी राज्यपाल ने आज तक की है? इसी कारण भाजपा के विधायकों की संख्या बंगाल में 3 से 73 हो गई। इसके बावजूद ममता के सांसदों ने धनखड़ को हराने की कोशिश बिल्कुल नहीं की।
इसका मुख्य कारण मुझे यह लगता है कि ममता कांग्रेस के उम्मीदवार के समर्थक के तौर पर बंगाल में दिखाई नहीं पड़ना चाहती थीं। इसका गहरा और दूरगामी अर्थ यह हुआ कि विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस को ममता नेता की भूमिका नहीं देना चाहती हैं यानी विपक्ष का भाजपा-विरोधी गठबंधन अब धराशायी हो गया है। कई विपक्षी पार्टियों के सांसदों ने भी धनखड़ का समर्थन किया है। हालांकि राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति का पद पार्टीमुक्त होता है लेकिन धनखड़ का व्यक्तित्व ऐसा है कि उन्हें भाजपा के बाहर के सांसदों ने भी पसंद किया है, क्योंकि चंद्रशेखर की जनता पार्टी सरकार में वे मंत्री रहे हैं, कांग्रेस में रहे हैं और भाजपा में भी रहे हैं। उनके मित्रों का फैलाव कम्युनिस्ट पार्टियों और प्रांतीय पार्टियों में भी रहा है।
वे एक साधारण किसान परिवार में पैदा होकर अपनी गुणवत्ता के बल पर देश के उच्चतम पदों तक पहुंचे हैं। ममता बनर्जी के साथ उनकी खींचतान काफी चर्चा का विषय बनी रही लेकिन वे स्वभाव से विनम्र और सर्वसमावेशी हैं। हमारी राज्यसभा को ऐसा ही सभापति आजकल चाहिए, क्योंकि उसमें विपक्ष का बहुमत है और उसके कारण इतना हंगामा होता रहता है कि या तो किसी भी विधेयक पर सांगोपांग बहस हो ही नहीं पाती है या फिर सदन की कार्रवाई स्थगित हो जाती है।
उप राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद इस सत्र के अंतिम दो दिन की अध्यक्षता वे ही करेंगे। वे काफी अनुशासनप्रिय व्यक्ति हैं लेकिन अब वे अपने पद की गरिमा का ध्यान रखते हुए पक्ष और विपक्ष में सदन के अंदर और बाहर तालमेल बिठाने की पूरी कोशिश करेंगे ताकि भारत की राज्यसभा, जो कि उच्च सदन कहलाती है, वह अपने कर्तव्य और मर्यादा का पालन कर सके। लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला और राज्यसभा के अध्यक्ष जगदीप धनखड़ को अब शायद विपक्षी सांसदों को मुअत्तिल करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
(लेखक, भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष हैं।)