– सियाराम पांडेय ‘शांत’
विपक्ष अपनी लामबंदी का ढोल चाहे जितना पीटे,लेकिन उसे यह तो मानना ही पड़ेगा कि एजेंडा तय करने के मामले में वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पासंग बराबर भी नहीं है। नौ साल इस देश का विपक्ष प्रधानमंत्री की बिछाई राजनीतिक पिच पर ही खेलता रहा है। उनकी हर चाल विपक्ष पर भारी पड़ती रही है। ऐसा शायद ही कभी देखने-सुनने को मिला हो कि विपक्ष की किसी रणनीति से भाजपा और उसके सहयोगी दलों की पेशानियों पर बल पड़े हों। उन्हें कोई परेशानी हुई हो।
हाल ही में प्रधानमंत्री ने भोपाल से देश को पांच वंदे भारत एक्सप्रेस ट्रेन की सौगात दी। कांग्रेस ने सवाल उठाया कि वंदे भारत ट्रेन का उद्घाटन प्रधानमंत्री मोदी ही क्यों करते हैं। अब उन्हें यह कौन समझाए कि श्रेय और प्रेय का यह खेल आजादी के बाद से ही शुरू हो गया था और इसका श्रीगणेश भी कांग्रेस ने ही किया था। उसके बाद की सरकारें तो महाजनों येन गता स पंथा: वाली रीति-नीति ही अपना रही है। श्रेय पथ के राही के साथ समस्या यह होती है कि श्रेय दूसरे को मिले, यह उसे स्वीकार्य नहीं होता। तवारीखें गवाह हैं कि गांधी-नेहरू परिवार के नाम तो हर विकास परियोजना से जुड़े रहते थे। मोदी सरकार में अब वे नाम हट रहे हैं। तर्क दिया जा रहा है कि ऐसा करके सरकार कांग्रेसी महापुरुषों के नाम जनता के दिल से नहीं निकाल पाएगी। इस तर्क-वितर्क के पचड़े में पड़े बगैर सीधे सम पर आते हैं।
भोपाल में प्रधानमंत्री ने समान नागरिक संहिता की खुली वकालत कर दी। तर्क दिया कि जब घर अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग कानून से नहीं चल सकता तो फिर देश अलग-अलग कानून से कैसे चल सकता है?अमेरिका, रूस, इजरायल, फ्रांस, जापान, तुर्की, बांग्लादेश, पाकिस्तान, आयरलैंड, मलेशिया, सूडान, इंडोनेशिया और मिस्र में अगर समान नागरिकता संहिता लागू की जा सकती है तो भारत में ऐसा क्यों नहीं हो सकता। उन्होंने विधि आयोग को इस बावत सभी पक्षों की राय एक माह में जानने की सलाह दी है। साथ ही यह भी कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय भी चाहता है कि देश में समान आचार संहिता होनी ही चाहिए।
गौरतलब है कि वर्ष 1985 में तीन तलाक के शाहबानो से जुड़े मामले में फैसला सुनाते वक्त सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाईवी चंद्रचूड़ की अगुआई वाली 5 सदस्यीय पीठ ने कहा था कि यह अफसोस की बात है कि हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 ‘डेड लेटर’ (अप्रचलित कानून) बना हुआ है। देश के लिए समान नागरिक संहिता बनाने की दिशा में सरकार की तरफ से किसी भी गतिविधि के कोई सबूत नहीं हैं। एक ऐसी धारणा मजबूत होती जा रही है कि मुस्लिम समुदाय अपने पर्सनल लॉ में सुधार के लिए खुद ही पहल करे। समान नागरिक संहिता विरोधाभासी विचारधारा वाले कानूनों (पर्सनल लॉ) के प्रति निष्ठा को खत्म कर राष्ट्रीय एकता में मदद करेगी।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि कोई भी समुदाय बिल्ली के गले में घंटी बांधने को तैयार नहीं है। यह राज्य की जिम्मेदारी है कि देश के नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करे और निश्चित तौर पर ये काम विधायिका का है। यह और बात है कि किसी भी राज्य ने इस जिम्मेदारी को निभाना उचित नहीं समझा। कांग्रेस की तत्कालीन केंद्र सरकार इसके समानांतर एक ऐसा कानून ले आई जो इस आदेश को कमजोर करने का काम करे। और यह सब मुस्लिम तुष्टीकरण और वोट की राजनीति के तहत किया गया। प्रधानमंत्री मोदी ने भोपाल से एक संदेश यह भी दिया कि उनकी सरकार तुष्टीकरण नहीं, संतुष्टिकरण के लिए काम करती है। अन्य दल समान आचार संहिता के नाम पर मुसलमानों को भड़काने का काम कर रहे हैं। तीन तलाक का मुद्दा उठा कर जहां उन्होंने मुस्लिम समाज की आधी आबादी का दिल जीतने की कोशिश की, वहीं पसमांदा समाज की उपेक्षा की बात कर विपक्षी एकता की हवा भी निकाल दी।
विपक्ष भयभीत है कि अगर मोदी सरकार चुनाव पूर्व कानून बना लेगी तो सारा श्रेय उसे मिल जाएगा और यह स्थिति राजनीतिक रूप से विपक्ष के लिए लाभप्रद नहीं होगी। विपक्षी दल प्रधानमंत्री की इस राय का विरोध कर रहे हों, ऐसा नहीं है, देशभर के मौलाना इस पर चिंतन कर रहे हैं और अपने सुविधा के संतुलन पर आई इस सियासी बला को टालने पर मंथन कर रहे हैं। मोदी के इस निर्णय से निजात पाने, उसका विरोध करने पर आम सहमति बनाने का यत्न के रहे हैं। इस क्रम में वे कितने सफल होंगे, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन बेचैनी है तो वह अपना असर भी दिखाएगी।दिखा भी रही है। कहां जाएं, क्या करें के हालात बनने लगे तो समझना चाहिए कि नुस्खा काम कर रहा है।
समान नागरिक संहिता को लेकर पटना में लामबंद हुए 15 दलों में जिस तरह बिखराव के हालात बने हैं, उससे तो यही लगता है कि विपक्ष की यह एकता बहुत टिकने वाली नहीं है। मोदी विरोध के हमसफर मोदी प्रयोग की शिला पर जल्द ही बिखर जाएंगे, यह कहने में शायद ही किसी को कोई संकोच हो। सवाल उठता है कि देश के एक राज्य गोवा ने आजादी के 14 साल बाद यानी 1961 में ही समान नागरिक संहिता लागू कर दी थी तो देश के अन्य राज्यों में आजादी के 76 साल बाद भी यह साहस क्यों नहीं उत्पन्न हो सका कि वे अपने लिए एक समान नागरिक संहिता बना सकें।
शरीयत कानून की तरह ही अगर अन्य धर्मावलम्बी भी धर्मग्रंथों के आधार पर चलने लगेंगे तो भारतीय संविधान का क्या होगा। लोकतंत्र का तब क्या स्वरूप होगा, इसकी कल्पना सहज ही कि जा सकती है। वैसे भी जब भारतीय अनुबंध अधिनियम 1872, नागरिक प्रक्रिया संहिता, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम 1882,भागीदारी अधिनियम 1932 और असंख्य अधिनियम पूरे देश में एक समान हैं तो धर्मनिरपेक्षता संबंधी कानून में ही विविधता का क्या औचित्य है? तीन तलाक और बहु विवाह की व्यवस्था क्या महिलाओं के साथ परले दर्जे का अत्याचार नहीं है?
विपक्ष का तर्क यह हो सकता है कि राम मंदिर निर्माण और अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने का भाजपा का एजेंडा पूरा हो चुका है। अब वह समान आचार संहिता के एजेंडे को पूरा करना चाहती है। माना कि यह सच भी है तो इससे देश का नुकसान क्या है? कब तक यह देश अनुच्छेदों की राजनीति का शिकार होता रहेगा। सभी धर्मों का सम्मान होना चाहिए। उनकी पूजा पद्धतियों का सम्मान होना चाहिए लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि किसी को मौलिक अधिकारों से खेलने की धार्मिक विविधता के आधार पर छूट दे दी जाए। पहले तो तलाक होना ही नहीं चाहिए क्योंकि यह सर्वथा दुखद है। फिर भी अगर बहुत जरूरी हो तो भी तलाक अदालतों के माध्यम से हों, यही ठीक है। समान नागरिक संहिता लागू होने पर ऐसा करना बाध्यकारी होगा।
अब जब आम आदमी पार्टी, शिवसेना उद्धव गुट और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने भी समान नागरिक संहिता बनाने की राय का समर्थन कर दिया है तो अन्य दलों को भी इस मुद्दे पर आम सहमति बनानी चाहिए। बांटने और राज करने की नीति राजनीतिक वास्तविकता या विवशता हो सकती है लेकिन इस क्रम में देश ही न बचे, इस तरह के हालात से बचने के सोच-विचार भी होते रहने चाहिए। काश, राजनीतिक दल इस पर गंभीर हो पाते।