Friday, November 22"खबर जो असर करे"

अखंड भारत को साकार करेगी समान नागरिक संहिता

– विजय विक्रम सिंह

सांसद किरोड़ी लाल मीणा ने पिछले दिनों ‘समान नागरिक संहिता’ (यूनिफॉर्म सिविल कोड) लागू करने के प्रावधान वाले प्राइवेट मेंबर बिल को राज्यसभा में पेश किया। विपक्षी विरोध पर सरकार ने कहा कि बिल पेश करना उनका अधिकार है। विपक्ष ने बिल वापस लेने की मांग की तो सभापति जगदीप धनखड़ ने वोटिंग करा दी। पक्ष में 63 और विरोध में 23 वोट पड़े। समान नागरिक संहिता का मतलब सभी नागरिकों के लिए समान कानून। भारत में क्रिमिनल लॉ समान रूप से लागू होते हैं, लेकिन विवाह, तलाक, गोद लेने, उत्तराधिकार जैसे सिविल मामलों में ऐसा नहीं है। ऐसे मामलों में पर्सनल लॉ लागू होते हैं। अलग-अलग धर्म को मानने वाले लोगों के लिए अलग-अलग कानून हैं।

तीन तलाक, अनुच्छेद-370 की समाप्ति और नागरिकता संशोधन कानून। शायद ही किसी सरकार ने इतनी तेज रफ्तार के साथ घोषणा पत्र को अमली जामा पहनाया हो, जिस दृढ़ता के साथ नरेन्द्र मोदी सरकार विभिन्न मामलों पर आगे बढ़ी। सरकार यह समझ चुकी है कि देश अब समान नागरिक संहिता चाहता है। यह देश मजहबी आधार पर बने पर्सनल कानूनों से पीड़ित है। उच्चतम न्यायालय भी एकाधिक मौकों पर सरकार से समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कह चुका है। यह ऐसा विचार है, जो संविधान में तो है, लेकिन तुष्टिकरण की राजनीतिक सोच ने इसे साकार नहीं होने दिया। संविधान सभा में बाबासाहब ने भरसक कोशिश की थी कि समान नागरिक संहिता लागू हो जाए पर उन्हें मुस्लिम प्रतिनिधियों का विरोध झेलना पड़ा। मजहब के आधार पर विभाजित देश में मुस्लिम प्रतिनिधि इस जिद पर अड़े थे कि वे तो शरीयत के हिसाब से अपने मसले सुलझाएंगे। अंबेडकर ने कहा- ‘मुझे निजी तौर पर ये बात समझ नहीं आती कि मजहब को इतना व्यापक और महंगा क्षेत्राधिकार कैसे दिया जा सकता है कि किसी का पूरा जीवन उससे संचालित हो और विधायिका को उसमें अतिक्रमण का अधिकार तक न हो।’

आखिर स्वतंत्रता से हमें हासिल क्या हुआ। हमें स्वतंत्रता का इस्तेमाल अपने सामाजिक ढांचे को सुधारने में करना चाहिए, जो कि तमाम किस्म की असमानता, भेदभाव और इसी तरह की चीजों से भरा पड़ा है। ये सब हमारे मूलभूत अधिकारों का हनन है। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू समान नागरिक आचार संहिता के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने अंबेडकर के सामने हाथ जोड़ लिए। 42वें संविधान संशोधन 1976 में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्म निरपेक्ष शब्द जोड़ा गया जिसके अनुसार भारत की सरकार किसी भी धर्म का समर्थन नहीं करेगी लेकिन सभी धर्मों का लॉ बोर्ड होने से तो जिनका कोई धर्म नहीं है उनका क्या होगा और इससे तो सरकार से ऊपर धर्म नजर आता है, जिसके कारण समान नागरिक संहिता का अब तक लागू नहीं होना एक दोष के समान है। दीनदयाल उपाध्याय का भी यही मत था। उनका विचार था कि भारत के एकीकरण का महत्वपूर्ण पहलू है कि देश के नागरिक धर्म से ऊपर उठकर एक कानून से बंधे हों। उनका कहना था कि सभी को बांधने वाला मंत्र एक हो। असल में कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हिंदू मुसलमान में बांटा, जबकि किसी भी धर्म को कानून से ऊपर उठकर फैसले कर देने का मतलब सांप्रदायिकता है। असल में धर्मनिरपेक्ष विचार का अर्थ यही है कि सभी धर्मों के लिए समान कानून हो।

संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद-44 में स्पष्ट कहा है कि देश को पूरे भारत में सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाने की दिशा में कार्य करना चाहिए। संविधान सभा में भी इस पर चर्चा के दौरान सबसे मुखर विरोध मुस्लिम सदस्यों ने किया। हुसैन इमाम, बी पोकर, अली बेग, इस्माइल, नजीरुद्दीन अहमद ने जोर दिया कि विवाद और उत्तराधिकार के मामलों को कुरान और शरीयत के हिसाब से ही तय होना चाहिए। ये एक रहस्य नहीं है कि तमाम मुस्लिम रहनुमा विवाह और उत्तराधिकार जैसे मसलों पर अलग कोना बचाकर क्यों रखना चाहते थे। इन दोनों ही मामलों में पर्सनल लॉ के नाम पर महिलाओं के साथ भारी भेदभाव और अत्याचार होता है।

मुस्लिम पक्ष की ओर से बार-बार धार्मिक मामलों में दखलंदाजी की बात कही जाती है। पर्सनल लॉ को लेकर भी यही दलील है, जबकि 1954 में ही सुप्रीम कोर्ट यह तय कर चुका है कि अनुच्छेद-25 और 26 के तहत दी गई धार्मिक और मजहबी आजादी का मतलब ये नहीं है कि यह कानूनों से ऊपर उठकर है। शाहबानो केस हो या सायरा बानो केस, सुप्रीम कोर्ट समान नागरिक संहिता की जरूरत बता चुका है। इसलिए कि पर्सनल लॉ संविधान में प्रदत्त समानता के अधिकार का उल्लंघन कर रहे हैं। समान नागरिक संहिता के विषय में इतना दुष्प्रचार फैलाया जा चुका है कि मुसलमानों को इसका सही अर्थ ही नहीं पता है। समान नागरिक संहिता सेक्युलर मामलों में सबके लिए समान कानून की बात करती है। इसका किसी की धार्मिक आजादी से कोई लेना देना नहीं है। हिंदू हो या मुस्लिम, समान नागरिक संहिता लागू होने की सूरत में अपने धार्मिक क्रियाकलाप निर्बाध रूप से जारी रखेंगे।

समान नागरिक संहिता बहुत जरूरी है क्योंकि इस समय देश में हिंदू मैरिज एक्ट, मुस्लिम पर्सनल लॉ, इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट, पारसी मैरिज एंड डाइवोर्स एक्ट जैसे अलग-अलग कानून लागू हैं। क्या कोई सभ्य समाज शादी और विरासत जैसे मसलों पर अलग-अलग धर्म के हिसाब से व्यवस्था की हिमायत कर सकता है। विविधता भरे इस देश मे सबके लिए जब आगे बढ़ने के लिए समान अवसर है तो सबके लिए समान नागरिक संहिता भी होनी चाहिए। समान नागरिक संहिता का उद्देश्य महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित संवेदनशील वर्गों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है, जबकि एकरूपता से देश में राष्ट्रवादी भावना को भी बल मिलेगा। भारत में गोवा राज्य में 1961 में ही समान नागरिक संहिता लागू कर दी गई। जो पुर्तगाल शासन के समय लागू था। पाकिस्तान के साथ अमेरिका, आयरलैंड, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की, इंडोनेशिया, सूडान, इजिप्ट आदि देश है और वहां समान नागरिक संहिता कानून लागू है। वर्तमान में उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने एक समिति गठित की है जो समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए ड्राफ्ट तैयार करेगी। उत्तर प्रदेश में विभिन्न धर्मो की बहुत बड़ी आबादी रहती है, जनसंख्या की दृष्टि से भी भारत का सबसे बड़ा राज्य है, यहां भी समान नागरिक संहिता लाने के लिए सार्थक प्रयास में तेजी लाने की आवश्यकता है।

समान नागरिक संहिता न होने से संविधान में विरोधाभासी स्थिति है। अनुच्छेद-14 नागरिकों को कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है। क्या पर्सनल लॉ एक जैसे मसलों पर समान कानून की सुरक्षा नागरिकों को दे पा रहे हैं, नहीं। अनुच्छेद-15 कहता है कि देश में किसी नागरिक से धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं होगा। क्या ये पर्सनल लॉ भेदभाव नहीं है। निश्चित रूप से यह भेदभाव है। इन पर्सनल कानूनों के कारण असमानता इस कदर व्याप्त है कि सुप्रीम कोर्ट को इंडियन सक्सेशन एक्ट के अनुच्छेद-118 को रद्द करना पड़ा। एक अन्य मामले में अदालत को कहना पड़ा कि भारत धर्मनिरपेक्ष देश है और ये निहायत जरूरी है कि धर्म को कानून से अलग रखा जाए, पर सांप्रदायिकता के बीज के रूप में ये पर्सनल लॉ संविधान की आकांक्षा को पूरा नहीं होने दे रहे हैं।

समान नागरिक संहिता ऐसा विचार है, जिसका समय आ चुका है। भारत जैसे देश जहां राजनीतिक दल छोटे-छोटे हितों के लिए पाला और विचार बदल लेते हैं, वहां सर्वसम्मति की बात करना बेमानी है। समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दे पर तो सर्वसम्मति का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि मुस्लिम तुष्टिकरण की दुकान बंद हो जाएगी। यह सरकार दिखा रही है कि जो सही है, वह किया जाएगा। अनुच्छेद-370 एक झटके में खत्म हो गया। तीन तलाक जैसी बुराई समाप्त हो गई। शरणार्थी हिंदुओं के जीवन में नागरिकता संशोधन कानून नया उजाला लेकर आया है। अब सबकी आंखें मोदी सरकार पर लगी हैं। समान नागरिक संहिता को लेकर भी सरकार उसी दृढ़ता से आगे बढ़ेगी ऐसा भारतीय लोकतंत्र मे आस्था रखने वाले हर भारतीय का विश्वास है।

(लेखक, पूर्वांचल विकास बोर्ड के सदस्य हैं।)