काल और भारतीय ज्ञान परंपरा
- हृदय नारायण दीक्षित
भारतीय ज्ञान परम्परा में काल की प्रतिष्ठा है। काल उपास्य है। माना जाता है कि जीवन काल के अधीन है। वैदिक साहित्य से लेकर रामायण महाभारत तक काल की चर्चा है। ऋग्वेद(1.64.2) में कहते हैं, ‘‘तीन नाभियों वाला कालचक्र गतिशील, अजर और अविनाशी है। इसके भीतर सभी लोक विद्यमान हैं।‘‘ पृथ्वी, अंतरिक्ष और द्युलोक तीन नाभियां हैं। काल का चक्र इन्ही नाभियों या धुरियों पर गतिशील है। नाभि या धुरी महत्वपूर्ण है। धुरी गतिशील है। गति का परिणाम काल है। संपूर्ण अस्तित्व के भीतर परमाणुओं की गति है। गति सर्वत्र है। काल भी सर्वत्र है। सभी ग्रहों की गति भिन्न-भिन्न है। इसलिए प्रत्येक ग्रह पर काल का अनुभव भी भिन्न है लेकिन काल सर्वत्र है। अविनाशी है, अमर है, अजर है। यह कभी बूढ़ा नहीं होता।
अथर्ववेद के 19वे काण्ड (सूक्त 53 व 54) में ऋषि ने काल की चर्चा की है, ‘‘विश्व रथ है। काल अश्व है। काल अश्व ...