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आचार की मजबूरी और विचार की लाचारी

आचार की मजबूरी और विचार की लाचारी

अवर्गीकृत
- गिरीश्वर मिश्र आजकल निजी पारिवारिक जीवन और सार्वजनिक सामाजिक जीवन के तेजी से बदलते परिवेश में जिस तरह की घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है वे भयावह हैं और निःसंदेह मनुष्य होने के मूल भाव को ही तिरस्कृत तथा अपमानित करने वाले जैसे लग रहे हैं। पिछले दिनों प्यार करना, लिव इन में रहना और फिर उसी प्रियजन की बर्बर हत्या की घटनाएं देश के कई कोनों से आईं। ऐसे ही पत्नी द्वारा प्रेमी की सहायता से पति की जान लेने जैसी भयानक वारदात की खबरें भी आती रही हैं। दुष्कर्म में व्यक्ति और समूह के स्तर पर लिप्त होने की भी घटनाएँ बढ़ रही हैं। ये सभी अंधे-अधूरे स्वार्थ के लिए रिश्तों की गहराती टूटन और आपसी भरोसे को कलंकित करने वाली घटनाएँ हैं। चिंता की बात यह है इस तरह की घटनाएँ थमने का नाम नहीं ले रही हैं। वे बार-बार और जगह-जगह हो रही हैं। इन सबके बीच आज हमारा सामाजिक ताना-बाना असहज होता जा रहा है और उसमें गाँठें...