विलुप्त होने को है सावन में झूला झूलने की परंपरा
- डॉ. रमेश ठाकुर
सावन माह झूलों के लिए प्रसिद्ध रहा है, जिसमें झूला झूलना सिर्फ रिवाज नहीं माना गया, बल्कि भारतीय संस्कृति की प्राचीन परंपरा भी कहा गया। पर, ये परंपरा अब विलुप्त होने के कगार पर है। क्योंकि अब सावन के माह में झूले कहीं दिखाई नहीं पड़ते। बदलते परिवेश और आधुनिकता की चकाचौंध ने झूलों की परंपरा को धराशायी कर दिया है। कमोबेश, आज स्थिति ये है कि ये रिवाज अब इतिहास के कागजी पन्नों में सिमटने को मजबूर हैं। सावन की रिमझिम बारिश और झूलों पर हिंदी फिल्मों के कई गाने बनें, फिल्मों में झूलों के दृश्य भी फिल्माए गए, पर अब ना वैसे अब गाने रहे और न ही झूले। बदलते समाज ने तमाम परंपराओं को समेट कर पिंजरे में बंद कर दिया है।
शहरों के मुकाबले ग्रामीण परिवेश में सावन माह के महत्व को हमेशा से बड़ा माना गया। वेद-पुराणों में इस महीने को पवित्र तो कहा ही गया है, साथ ही दो और खास बातें जुड़ी हैं। अ...