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भारतीय संस्कृति के आच्छादन में सभी अपने हैं

भारतीय संस्कृति के आच्छादन में सभी अपने हैं

अवर्गीकृत
- हृदयनारायण दीक्षित ऋतुराज बसंत मदन गंध बिखेर कर चलते बने। होली का रस रंग अभी ताजा है। अब भारतीय नवसम्वत्सर का उल्लास। यह रस गहरा है। देवी उपासना के नवरात्र उत्सवों की धूम है। भारत का मन उत्सवधर्मा हो गया है। कालरथ के घोड़ों की पगध्वनियां सुनाई पड़ रही हैं। काल पुरुष नृत्यमगन है। यह सबको नचाता है, स्वयं भी नाचता है। यह काल सबके भीतर है और बाहर से भी सबका आच्छादन करता है। ऋग्वेद में यह तीन धूरियों वाला है। पृथ्वी अंतरिक्ष और द्युलोक तीन नामियाँ हैं। अथर्ववेद के ऋषि भृगु से लेकर महाभारत के रचनाकार व्यास तक कालबोध और कालदर्शन की प्राचीन परम्परा है। काल के प्रभाव में वायु प्रवाह है। काल से ही आयु है। काल में जीवन और काल में मृत्यु। कालरथ किसी को नहीं छोड़ता। जीवन देता है, लहकाता है। जराजीर्ण करता है। जीवन का अवसान भी करता है। काल अखण्ड सत्ता है। भूत भविष्य और वर्तमान हम सबने अपनी मन तरंग में रच...