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रेवड़ी की मिठास पर सियासत की खटास

रेवड़ी की मिठास पर सियासत की खटास

अवर्गीकृत
- सियाराम पांडेय ‘शांत’ रेवड़ी की अपनी मिठास होती है। इसकी मिठास और स्वाद के रसिक भारत ही नहीं, अपितु पूरी दुनिया में हैं। लखनऊ में 30 करोड़ रुपये की रेवड़ी हर माह बिकती रही है। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने तो लखनवी गजक के लिए अपना हेलीकाप्टर तक रुकवा दिया था। रोहतक में भी रेवड़ी का सालाना कारोबार डेढ़ लाख करोड़ रुपये का है। पाकिस्तानी भी इसके दीवाने हैं। अपने परिचितों के जरिए वे लखनऊ और रोहतक की रेवड़ी मंगाते रहते हैं लेकिन कोरोना की भारी मार के बाद अब तो रेवड़ी शब्द भी असंसदीय हो गया है। आपत्तिजनक हो गया है। सियासी कठघरे में खड़ा हो गया है। हालांकि अंधे की रेवड़ी वाला मुहावरा इस देश में बहुत पहले से चला आ रहा है लेकिन इस पर आपत्ति कभी नहीं हुई। इसे दिव्यांगों के अपमान के तौर पर भी नहीं देखा गया। देखा भी गया हो तो इसे कोई खास तवज्जो नहीं दी गई। तवज्जो तभी मिलती है जब नेता उस प...