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गैसलाइटिंगः वर्ड ऑफ द ईयर नहीं, घिनौनी मानसिकता की तस्वीर

गैसलाइटिंगः वर्ड ऑफ द ईयर नहीं, घिनौनी मानसिकता की तस्वीर

अवर्गीकृत
- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा 1938 में जब पहली बार पैट्रिक हैमिल्टन द्वारा लिखित नाटक गैसलाइटिंग खेला गया होगा या दो साल बाद 1940 में इस नाटक पर आधारित दो फिल्में प्रदर्शित हुईं तब भी हैमिल्टन या किसी और ने यह नहीं सोचा होगा कि एक समय ऐसा भी आएगा जब गैसलाइटिंग सबसे अधिक सर्च किया जाने वाला शब्द बन जाएगा। गैसलाइटिंग कोई गैस जलाने वाला लाइटर नहीं बल्कि मानसिक व मनोवैज्ञानिक रूप से अंदर तक जला देने वाली क्रियाएं हैं। दूसरे अर्थों में, व्यक्ति को अपनों या अपने आसपास वालों द्वारा मनोविज्ञानिक रूप से इतना टार्चर कर दिया जाए कि उसे पता ही नहीं चले कि उसे टार्चर किया जा रहा है। अपितु प्रभावित व्यक्ति कुंठाग्रस्त और हीनभावना से ग्रसित हो जाए। विचारणीय यह नहीं है कि अमेरिका की ख्यातनाम डिक्शनरी मेरियम वेबस्टर के संपादक पीटर सोकोलोवस्की ने इस साल सबसे अधिक खोजे वाले शब्द के रूप में गैसलाइटिंग को घोष...
ऐसे बदल सकती है सरकारी स्कूलों की तस्वीर…!

ऐसे बदल सकती है सरकारी स्कूलों की तस्वीर…!

अवर्गीकृत
- ऋतुपर्ण दवे भारतीय शिक्षा व्यवस्था उसमें भी खासकर सरकारी तंत्र के अधीन संचालित शिक्षण संस्थाएं आज भी उस मुकाम पर नहीं पहुंच सकीं जिसकी उम्मीद थी। जिनके लिए और जिनके सहारे सारी कवायद हो रही है वही महज रस्म अदायगी करते हुए तमाम सरकारी फरमान एक-दूसरे तक इस डिजिटल दौर में फॉरवर्ड कर खानापूर्ति करते नजर आते हैं। ऐसी तमाम कोशिश, योजनाओं के बावजूद मौजूदा हालात देख जल्द कुछ अच्छे सुधार की उम्मीद बेमानी है। सबसे ज्यादा बदहाल सरकारी स्कूलों की व्यवस्थाएं है। सच तो यह है कि भारत में पूरी शिक्षा व्यवस्था यानी बुनियादी से लेकर व्यावसायिक तक बाजारवाद में जकड़ी हुई है। इसी चलते जहां निजी या कहें कि आज के दौर के धनकुबेरों या बड़े कॉर्पोरेट घरानों के स्कूल जो फाइव स्टार सी चमक दिखाकर रईसों में लोकप्रिय हैं तो वहीं मध्यमवर्गीय लोगों की पसंद के अपनी खास चमक-दमक, लुभावनी वर्दी, कंधों पर भारी भरकम स्कूल बै...