सतही राजनीति और जनाकांक्षाओं की कसौटी
- गिरीश्वर मिश्र
भारत की जनता में सहते रहने की अदम्य शक्ति है और वह सबको अवसर देती है कि वे अपने वादों और दायित्वों के प्रति सजग रहें परंतु जनप्रतिनिधि होने पर भी ज्यादातर राजनेता जन-प्रतिनिधित्व के असली काम को संजीदगी से नहीं लेते हैं । चुनावी सफलता पाने के बाद वे यथाशीघ्र और यथासंभव सत्ता भोगने के नुस्खे आजमाने लगते हैं । ऐसे में जन-सेवा का वह संकल्प और जज्बा एक ओर धरा रह जाता है जो धूमिल रूप में ही सही उनके मन कभी तैर रहा होता था । दरअसल वे एक व्यापारी की तरह सोचने और काम करने लगते हैं। बिगड़ैल काल देवता से भयभीत वे राजनीति के व्यवसाय से (अपने लिए) समयबद्ध ढंग से अधिकाधिक धन-धान्य या समृद्धि उगाहने में दत्तचित्त जुट जाते हैं । पर आगे क्या हो सकता है इसका दर्दनाक उदाहरण पश्चिम बंगाल में जेलबंद शिक्षा मंत्री और उनके सहयोगियों से मिलता है।
जिस तरह शिक्षक नियुक्ति के मामले में करोड़ों रुप...