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‘प्रभात’ का कभी ‘सूर्यास्‍त’ नहीं हो सकता

‘प्रभात’ का कभी ‘सूर्यास्‍त’ नहीं हो सकता

अवर्गीकृत
- लोकेन्‍द्र पाराशर मनुष्‍य जब अस्तित्‍व में आता है, तो उसकी प्रारंभिक पहचान उसकी देह से होती है। सामान्‍य व्‍यक्ति इसी देह के साथ ही एक दिन समाप्‍त भी हो जाता है, लेकिन समाज में कुछ ऐसे लोग भी जन्‍म लेते हैं, जिन्‍हें उनकी देह से नहीं, दैदीव्‍यता से पहचाना जाता है। ऐसे ही मनुष्‍य को असाधारण, विलक्षण, प्रखर, प्रतापी, विचारवान, दयावान, निर्णायक, परिश्रमी जैसे शब्‍दों से अलंकृत किया जाता है। प्रभात झा के जीवन काल को हम देखें तो ध्‍यान में आता है कि उन्‍होंने सब बातों की चिंता करते हुए यदि किसी एक चीज की चिंता नहीं की तो वह उनकी देह ही थी। देह से पूर्णत: विरक्‍त रहकर रक्‍त-रक्‍त को परिश्रम की पराकाष्‍ठा में लगा देना ही प्रभात जी की पहचान थी। बिहार से चलकर मुंबई और ग्‍वालियर आगमन की यात्रा को जिन लोगों ने देखा, उन्‍होंने प्रभात जी को एक अभाव में पलने वाले 'प्रभाव' के रूप में ही देखा। ...