Friday, November 22"खबर जो असर करे"

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मोबाइल की आभासी दुनिया में खोता बालमन

मोबाइल की आभासी दुनिया में खोता बालमन

अवर्गीकृत
- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा सोशल मीडिया पर आए दिन इस तरह की तस्वीर देखने को मिल जाएगी जिसमें ड्राइंग रूम में तो परिवार के लगभग सभी सदस्य बैठे हैं पर उनके बीच किसी तरह के संवाद की बात करना ही बेमानी होगा। सभी अपने-अपने स्थान पर अपने मोबाइल फोन में खोये मिलेंगे। खोये होने का मतलब साफ है कि कोई गेमिंग कर रहा होगा तो कोई इंस्टाग्राम, फेसबुक, व्हाट्स ऐप या इसी तरह के किसी दूसरे ऐप पर व्यस्त होगा। सवाल साफ है कि जो हम देखेंगे उसमें हमें पसंद भी वो ही आएगा जो अधिक ग्लैमरस होगा और यही कारण है कि गेमिंग, चैटिंग या फिर रील्स बनाने देखने में बच्चों से बड़े तक व्यस्त मिलेंगे। इसके साथ ही गेमिंग जहां बच्चों-बड़ों को लालच दिखाकर एक तरह से जुआरी बना रही है वहीं कुछ गेम तो इस कदर हानिकारक रहे हैं कि उन्हें फॉलों करते करते बच्चों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा है। सोशियल मीडिया, ओटीटी व गेमिंग के साथ ही...
बहुत याद आते हैं सर्कस के बब्बर शेर

बहुत याद आते हैं सर्कस के बब्बर शेर

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- के. विक्रम राव तब तक टीवी ने हम लोगों की शाम को बख्श दिया था। ईजाद ही नहीं हुआ था। मोबाइल ने दिनरात हड़पे नहीं थे। वह भी नहीं बना था। उस दौर में वक्त खुद प्रतीक्षा करता था। शहर में सर्कस लगने की खबर आते ही, आग जैसी फैलती थी। परिवारों में तो खासकर। मगर अब सर्कस में चौपायों में केवल घोड़े ही बचे हैं। ढाई सदी बीते दुनिया का सर्वप्रथम सर्कस चार अप्रैल 1768 के दिन ही आया था। लंदन में फिलिप और उनकी पत्नी पैट्सी ने घुड़सवारी के करतब दिखाकर सर्कस की नींव डाली थी। इस छह फुटे फौजी अश्वारोही ने ही करिश्मायी शो आयोजित किया। वही बाद में विकसित होकर मनोरंजन में नया आयाम लाया। फिर अन्य चौपाये सर्कस में शरीक हुए। खासकर शेर बब्बर, बाघ, रीछ, हाथी इत्यादि। मगर पशुओं के प्रति क्रूरता वाला कानून संसद द्वारा बनते ही, सब बंद हो गया। फीका पड़ गया। लखनऊ की एक लोमहर्षक वारदात चिरस्मरणीय रहती है। पचास साल बीत...