Friday, November 22"खबर जो असर करे"

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भारत के मन का मूल उत्स सांस्कृतिक है

भारत के मन का मूल उत्स सांस्कृतिक है

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- हृदयनारायण दीक्षित भारत उत्सव प्रिय उल्लासधर्मा देश है। सतत कर्म यहां जीवन साधना है। पूरे वर्ष कर्म प्रधान जीवन और बीच-बीच में पर्व त्योहार और उत्सवों का आनंद। भारत के मन का मूल उत्स सांस्कृतिक है। उत्स का अर्थ है केन्द्र। उत्सव परिधि है। उत्सव उल्लासधर्मा होते हैं। वे भारत के लोक को भीतर और बाहर तक आच्छादित करते हैं। मकर संक्रान्ति का उत्सव ऐसा ही है। यह भारत के सभी हिस्सों में मनाया जा रहा है। नदियों में कड़ाके की ठंढ के बावजूद स्नान ध्यान, पूजन और आनन्द। हम भारत के लोग उत्सवों में समवेत होते हैं, आनन्दित होते हैं। संप्रति मकर संक्रान्ति के अवसर पर ग्रामीण क्षेत्रों में भी आनंद की लहर है। भारतीय चिंतन में सूर्य ब्रह्माण्ड की आत्मा हैं। सूर्य सभी राशियों पर संचरण करते प्रतीत होते हैं। वस्तुतः पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है। आर्य भट्ट ने आर्यभट्टीयम में लिखा है, ''जिस तरह नाव म...
मानसिक स्वास्थ्य की चुनौतियां

मानसिक स्वास्थ्य की चुनौतियां

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- गिरीश्वर मिश्र आयुर्वेद के अनुसार यदि आत्मा, मन और इंद्रियां प्रसन्न रहें तो आदमी को स्वस्थ कहते हैं । ऐसा स्वस्थ आदमी ही सक्रिय हो कर उत्पादक कार्यों को पूरा करते हुए न केवल अपने लक्ष्यों की पूर्ति कर पाता है बल्कि समाज और देश की उन्नति में योगदान भी कर पाता है । निश्चय ही यह एक आदर्श स्थिति होती है परंतु यह स्थिति किसी भी तरह निरपेक्ष नहीं कही जा सकती। जीवन का आरम्भ और जीने की पूरी प्रक्रिया परिस्थितियों के बीच उन्हीं के विभिन्न अवयवों से बनते-बिगड़ते एक गतिशील परिवेश के बीच आयोजित होती है । उदाहरण के लिए देखें तो पाएंगे सांस लेना भी परिवेश से मिलने वाले आक्सीजन पर निर्भर करता है जो नितांत स्वाभाविक और प्राकृतिक लगता है पर प्रदूषण होने पर या फेफड़े में संक्रमण हो तो मुश्किल हो जाती है । कोविड महामारी में यह सबने बखूबी देखा और पाया था । वस्तुतः हमारा परिवेश भौतिक, सामाजिक और मानसिक हर...
चित्त में प्रकाश की अतृप्त अभिलाषा

चित्त में प्रकाश की अतृप्त अभिलाषा

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- हृदयनारायण दीक्षित हम भारतीय सनातनकाल से प्रकाशप्रिय हैं। भारत का भा प्रकाशवाची है और ‘रत‘ का अर्थ संलग्नता है। भारत अर्थात प्रकाशरत राष्ट्रीयता। हम सब के चित्त में प्रकाश की अतृप्त अभिलाषा है। सम्पूर्ण अस्तित्व अपने मूल स्वरूप में प्रकाश रूपा है। अष्टावक्र ने जनक की सभा में कहा था- ‘‘वह ज्योर्तिएकम् है।‘‘ हंसोपनिषद् में अस्तित्व को ऊर्ध्व गतिशील पक्षी के रूपक में समझाया गया है। यह पक्षी हंस जैसा है। अग्नि और सोम इसके दो पंख हैं। समय और अग्नि भुजाए हैं।” मंत्र का अंतिम भाग अप्रतिम प्रकाशवाची है। बताते हैं- “एषो असो परमहंसौ भानुकोटि प्रतीकोशो येनेदं व्याप्तं - यह परम हंस करोड़ो सूर्यों के तेज जैसा प्रकाशमान है। इसका प्रकाश संपूर्ण अस्तित्व को व्याप्त करता है।” छोटा मोटा प्रकाश नहीं करोड़ों सूर्यों का प्रकाश। गीता में अर्जुन ने विराट रूप देखा। उसे भी “दिव्य सूर्य सहस्त्राणि’ की अनुभूति हुई।...