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आओ थोड़ा सा तुम फागुन हो जाओ

आओ थोड़ा सा तुम फागुन हो जाओ

अवर्गीकृत
- प्रभुनाथ शुक्ल खेतों में फसलों की रंगत बदल गई है। सरसों के पीले फूल खत्म हो गए हैं। सरसों फलियों से गदाराई है। मटर और जौ की बालियां सुनहरी पड़ने लगी हैं। जवान ठंड अब बूढ़ी हो गई है। हल्की पछुवा की गलन गुनगुनी धूप थोड़ा तीखी हो गई है। घास पर पड़ी मोतियों सरीखी ओस की बूंदें सूर्य की किरणों से जल्द सिमटने लगी हैं। प्रकृति के इस बदलाव के साथ फागुन ने आहिस्ता-आहिस्ता कदम बढ़ा दिया है। टेशू , गेंदा और गुलाब फागुन की मस्ती में खिलखिला रहे हैं। अमराइयों में आम में लगे बौरों की मादकता अजीब गंध फैला रही है। भौंरे कलियों का रसपान कर वसंत के गीत गुनगुना रहे हैं। पेड़ों से पत्ते रिश्ते तोड़ वसंत के स्वागत में धरती पर बिछ जाने को आतुर हैं। प्रकृति और उसका एहसास फागुन के होने की दस्तक देता है। लेकिन इंसान बिल्कुल बदल चुका है। वह फागुन को जीना नहीं चाहता है। वह प्रकृति से साहश्चर्य नहीं रखना चाहता है। ...