सनातन है जीवन का आमंत्रण
- गिरीश्वर मिश्र
यह भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि ‘सनातन’ और ‘धर्म’ जैसे अत्यंत व्यापक आशय वाले सदाशायी विचारों को लेकर अर्थ का अनर्थ करने वाली चर्चाएँ चल रही हैं। इन अवधारणाओं का अवमूल्यन हो रहा है। पहले बिना जाने बूझे इन्हें ‘विज्ञान विरोधी’ कहा गया था और उसे आडम्बर और ढोंग की श्रेणी में रख व्यर्थ मान लिया गया। भौतिक और आध्यात्मिक की दो श्रेणियाँ बनाई गई। इसके साथ यथार्थ और कल्पित का भेद किया गया। शरीर और आत्मा के रिश्ते को विच्छिन्न कर दिया गया। हो होता है उसका एक ही स्वरूप है। वह सिर्फ़ वस्तु है । फलतः सब कुछ को वस्तु की श्रेणी में रखा गया । अब राजनीति की सहूलियत देखते हुए उसमें अनेक दूसरे दोष देखे जा रहे हैं। ‘सनातन धर्म’ को लेकर उसे उसके मूल भाव से काट कर उस पर तोहमत जड़ कर उसकी छवि धूमिल करने की कोशिश हो रही है।
इस तरह की कोशिश स्वस्थ और परिपक्व मानसिकता की जगह संकुचित मनोवृत्...