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चित्त में प्रकाश की अतृप्त अभिलाषा

चित्त में प्रकाश की अतृप्त अभिलाषा

अवर्गीकृत
- हृदयनारायण दीक्षित हम भारतीय सनातनकाल से प्रकाशप्रिय हैं। भारत का भा प्रकाशवाची है और ‘रत‘ का अर्थ संलग्नता है। भारत अर्थात प्रकाशरत राष्ट्रीयता। हम सब के चित्त में प्रकाश की अतृप्त अभिलाषा है। सम्पूर्ण अस्तित्व अपने मूल स्वरूप में प्रकाश रूपा है। अष्टावक्र ने जनक की सभा में कहा था- ‘‘वह ज्योर्तिएकम् है।‘‘ हंसोपनिषद् में अस्तित्व को ऊर्ध्व गतिशील पक्षी के रूपक में समझाया गया है। यह पक्षी हंस जैसा है। अग्नि और सोम इसके दो पंख हैं। समय और अग्नि भुजाए हैं।” मंत्र का अंतिम भाग अप्रतिम प्रकाशवाची है। बताते हैं- “एषो असो परमहंसौ भानुकोटि प्रतीकोशो येनेदं व्याप्तं - यह परम हंस करोड़ो सूर्यों के तेज जैसा प्रकाशमान है। इसका प्रकाश संपूर्ण अस्तित्व को व्याप्त करता है।” छोटा मोटा प्रकाश नहीं करोड़ों सूर्यों का प्रकाश। गीता में अर्जुन ने विराट रूप देखा। उसे भी “दिव्य सूर्य सहस्त्राणि’ की अनुभूति हुई।...