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देवी उपासक है भारत का लोकजीवन

देवी उपासक है भारत का लोकजीवन

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- हृदयनारायण दीक्षित माँ प्रत्येक जीव की आदि अनादि अनुभूति है। हम सबका अस्तित्व माँ के कारण है। माँ न होती तो हम न होते। माँ स्वाभाविक ही दिव्य हैं, देवी हैं, पूज्य हैं, वरेण्य हैं, नीराजन और आराधन के योग्य हैं। मार्कण्डेय ऋषि ने ठीक ही दुर्गा सप्तशती (अध्याय 5) में “या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता बताकर नमस्तस्ये, नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमोनमः” कहकर अनेक बार नमस्कार किया है। माँ का रस, रक्त और पोषण ही प्रत्येक जीव का मूलाधार है। ऋषियों ने इसीलिए माँ को देवी जाना और देवी को माता कहा। मां के निकट होना आनंददायी है। हमारी भाषा में निकटता के लिए ‘उप’ शब्द का प्रयोग हुआ है। ‘उप’ बड़ा प्यारा है। इसी से ‘उपनिषद’ बना। उप से उपासना भी बना है। उपनिषद् का अर्थ है-ठीक से निकट बैठना। उत्तरवैदिक काल में इसका प्रयोग आचार्य और शिष्य की ज्ञान निकटता था। उपासना का अर्थ भी निकट होना है। उपवास का भी अर्थ ...

जीवन-सौन्दर्य के लिए चाहिए संस्कृति संवर्धन

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- गिरीश्वर मिश्र संस्कृति लोक-जीवन की सतत सर्जनात्मक अभिव्यक्ति का पुंज होती है जिसका इतिहास, साहित्य, शिक्षा, विविध कला रूपों, स्थापत्य, शिल्प तथा जीवन-शैली आदि के साथ घनिष्ठ संबंध होता है। संस्कृति को उन उदात्त जीवन मूल्यों के रूप में भी देखा जाता है जो आदर्श रूप में प्रतिष्ठित होते हैं और समाज की गतिविधि के लिए उत्प्रेरक का काम करते हैं। बहु आयामी संस्कृति की सत्ता उन अनेकानेक मूर्त और प्रतीकात्मक परंपराओं में रची-पगी विभिन्न रूपों में सामाजिक जीवन में उपस्थित रहती है। वह वाचिक प्रथाओं और व्यवहारों के प्रत्यक्ष अभ्यासों के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी संक्रमित होते हुए आगे बढ़ती है। संस्कृति के सभी पक्षों में समय के साथ परिवर्तन भी अनिवार्य रूप से घटित होते हैं। दूसरी संस्कृति(यों) के साथ सहयोग और (या) संघर्ष की प्रवृत्ति वाले प्रभाव भी जन्म लेते हैं। उनको लेकर क्रिया- प्रतिक्रिया भी होती है।...