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मनोरंजन का बाजार, संस्कृति पर प्रहार

मनोरंजन का बाजार, संस्कृति पर प्रहार

अवर्गीकृत
- सुशील शर्मा आजकल देश में मनोरंजन का बाजार भारतीय संस्कृति पर तगड़ा प्रहार कर रहा है। धारावाहिकों और मनोरंजन शोज में द्विअर्थी-भद्दे संवाद और दृश्य खुल्लम-खुल्ला सुनाए और दिखाए जा रहे हैं। सिनेमा के परदे पर शीला-मुन्नी जैसे गानों की भरमार है। युवा रास्ते में आती-जाती लड़कियों पर इन गानों के माध्यम से फब्तियां कसते हैं। फिल्म और टेलीविजन ऐसी चीजों की जानकारी देने लगते हैं जिन्हें बच्चे सही अर्थों में जानने के बजाय गलत तरीके से अपनाने लगते हैं। इसी का परिणाम जघन्य यौन अपराध के रूप में बार-बार प्रकट हो रहा है। अश्लीलता परोसे जाने की इस प्रवृत्ति के साथ फूहड़ विज्ञापनों की भरमार ने सुसभ्य समाज की चिंता बढ़ा दी है। इनमें सामान्यतः नारी की फूहड़ छवि प्रस्तुत की जा रही है। इसका विरोध हमेशा शून्य रहा है। तभी तो यह सब धड़ल्ले से चल रहा है। यदि समय रहते इन अश्लील विज्ञापनों, पोस्टरों, पत्रिकाओं ...