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सबके लिए त्वरित न्याय की अवधारणा पर आधारित हैं नए आपराधिक कानून

सबके लिए त्वरित न्याय की अवधारणा पर आधारित हैं नए आपराधिक कानून

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- डॉ. मोहन यादव भारत में आपराधिक कानूनों में परिवर्तन और सुधार एक महत्वपूर्ण विषय है, जो समाज की बदलती आवश्यकताओं और न्याय की आवश्यकता को पूरा करने के लिए समय-समय पर किया जाता है। हाल ही में, भारतीय दंड संहिता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम जैसे आपराधिक कानूनों को संसद में पारित किया गया। अब एक जुलाई 2024 से पूरे देश में यह लागू हो रहा है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में कानून को पेश करते हुए कहा कि खत्म होने वाले ये तीनों कानून अंग्रेज़ी शासन को मज़बूत करने और उसकी रक्षा करने के लिए बनाए गए थे। इनका उद्देश्य दंड देने का था, न की न्याय देने का। तीन नए कानून की आत्मा भारतीय नागरिकों को संविधान में दिए गए सभी अधिकारों की रक्षा करना, इनका उद्देश्य दंड देना नहीं बल्कि न्याय देना होगा। भारतीय आत्मा के साथ बनाए गए इन तीन कानूनों से हमारे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम म...
नवोन्मेष की ओर बढ़ते कदम

नवोन्मेष की ओर बढ़ते कदम

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- गिरीश्वर मिश्र यद्यपि गणतंत्र की अवधारणा और स्वाधीनता के विचार भारत में कई हज़ार साल पहले व्यवहार में थे परंतु ऐतिहासिक उठा-पटक के बीच वे धूमिल पड़ते गए थे। यदि निकट इतिहास में झाकें तो अंग्रेजी राज ने उपनिवेश स्थापित कर लगभग दो सदियों तक फैले काल-खंड में भारतीय समाज को साम्राज्यवाद का बड़ा कड़वा स्वाद चखाया था। भारत को अपने लिए उपभोग की सामग्री मान बैठ अंग्रेजों की कुनीति ने देश का भयंकर शोषण किया। उस दौर में भारत को अपने रंग-ढंग में ढालने की लगातार कोशशें होती रहीं। भारत का मौलिक स्वभाव संकीर्ण न हो कर वैश्विक था। परस्पर निर्भरता और अनुपूरकता के आधार पर सामाजिक समरसता, भ्रातृत्व और सौहार्द के साथ सह अस्तित्व को सांस्कृतिक लक्ष्य के रूप में वैदिक काल में ही स्वीकार करते हुए संकल्प लिया गया था - संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गए स्वतंत्रता संग्राम ...
अमृतकाल में रामराज्य की संकल्पना हो रही है साकार

अमृतकाल में रामराज्य की संकल्पना हो रही है साकार

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- विष्णुदत्त शर्मा राम राज बैठे त्रैलोका। हर्षित भए गए सब सोका।। यह चौपाई अब वास्तविकता बनने जा रही है जब श्री रामलला की प्राण प्रतिष्ठा से चहुंओर हर्ष और आनंदमय वातावरण होगा। 5 अगस्त 2020 को राममंदिर की आधारशिला रखते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘जय सियाराम’ के उद्घोष के साथ अपने संबोधन में कहा था कि “आप भगवान राम की अद्भुत शक्ति देखिए... इमारतें नष्ट हो गईं, अस्तित्व मिटाने का भरसक प्रयास हुआ, लेकिन प्रभु श्रीराम आज भी हमारे मन में बसे हुए हैं। प्रभु श्रीराम हमारी संस्कृति के आधार हैं, भारत के जनमानस के विचार हैं और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम हैं।“ प्रधानमंत्री ने अपने संकल्प स्वरूप यह भी कहा था कि ‘राम काज किन्हें बिनु, मोहि कहां विश्राम...।’ 22 जनवरी 2024 को भव्य-दिव्य मंदिर में हमारे रामलला विधि-विधान के साथ विराजने जा रहे हैं। सांस्कृतिक सभ्यता से परिपूर्ण हमारा भारत सरयू...
धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा मात्र भ्रम है

धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा मात्र भ्रम है

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- पंकज जगन्नाथ जयस्वाल कोई सोच भी नहीं सकता कि 140 करोड़ की आबादी वाला देश 70 साल से भी ज्यादा समय से 'सेक्युलरिज्म' शब्द के झांसे में फसा हुआ है। विरोधी मान्यताओं वाले राजनीतिक समूह 'धर्मनिरपेक्षता' के बैनर तले एकजुट हो गए हैं। कई राजनीतिक दल चुनाव जीतने और धर्म के खिलाफ शासन करने के लिए तुरुप के पत्ते के रूप में 'धर्मनिरपेक्षता' का उपयोग करते हैं। धर्म का पालन करने वाले राजनीतिक दल की कड़ी आलोचना की जाती है। उसे हराने के लिए तमाम तरह के तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है। यह एक ऐसे देश में हो रहा है जहां राजनीतिक जीवन की दस हजार साल की परंपरा सभी के लिए न्याय और समानता को स्थापित करती है, जैसा कि रामराज्य में देखा गया है। धर्म, स्वामी विवेकानंद के अनुसार, भारत का मूल है। लोगों को यह विश्वास करने में गुमराह किया गया कि रिलीजन का अर्थ धर्म है। भारत के इतिहास में ऐसा कोई क्षण नहीं था जहां रि...
जैव विकास में दशावतार की अवधारणा और डार्विन

जैव विकास में दशावतार की अवधारणा और डार्विन

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- प्रमोद भार्गव एनसीईआरटी अर्थात राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम से नवीं एवं दसवीं कक्षाओं की विज्ञान पुस्तकों से चार्ल्स डार्विन के जैव विकास के सिद्धांत को हटा दिए जाने पर विवाद गहरा रहा है। देश के लगभग 1800 वैज्ञानिक और शिक्षकों ने एनसीईआरटी की इस पहल की आलोचना करते हुए इसे शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा उपहास बताया है। दरअसल भारत के बुद्धिजीवियों का एक वर्ग जब भी किसी पाश्चात्य सिद्धांत या इतिहास के भ्रामक प्रसंगों को हटाए जाने की बात छिड़ती है तो उसके पक्ष में उठ खड़े होते हैं। जबकि चार्ल्स डार्विन ने जब जीवों के विकासवाद का अध्ययन करने के बाद 1859 में ‘ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज‘ अर्थात ‘जीवोत्पत्ति का सिद्धांत‘ दिया तब इसका ईसाई धर्मावलंबियों और अनेक ईसाई वैज्ञानिकों ने जबरदस्त विरोध किया था। क्योंकि इसमें मनुष्य का अवतरण बंदर से बताया गया था। अलबत्ता जब ...
भारत के मूल में मानवाधिकार की अवधारणा

भारत के मूल में मानवाधिकार की अवधारणा

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- रमेश सर्राफ धमोरा कुछ अधिकार ऐसे होते हैं जो व्यक्ति को जन्मजात मिलते हैं। उन अधिकारों का व्यक्ति के आयु, प्रजातीय मूल, निवास-स्थान, भाषा, धर्म पर कोई असर नहीं पड़ता। इतिहास गवाह है की भारत ने कभी भी संस्कृति, धर्म या अन्य कारकों के आधार पर दूसरों को अपने अधीन करने की कोशिश नहीं की है। भारत एक ऐसा देश है जिसके मूल में मानवाधिकार की अवधारणा है। भारत के लोग मानवाधिकारों का सम्मान करते हैं और उनकी रक्षा करने का संकल्प भी लेते हैं। भारत विश्व स्तर पर आज भी मानवाधिकार का समर्थन करता रहा है। मानव अधिकार वे मूल अधिकार हैं, जो इस धरती पर प्रत्येक व्यक्ति के पास हैं। मानवाधिकार मौलिक अधिकार और स्वतंत्रता हैं। मानवाधिकारों में जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार, गुलामी और यातना से मुक्ति, राय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, काम और शिक्षा का अधिकार और बहुत कुछ शामिल हैं। बिना किसी भेदभाव के हर कोई इन अधिकार...