Friday, November 22"खबर जो असर करे"

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अमृतकाल में महात्मा गांधी का स्मरण

अमृतकाल में महात्मा गांधी का स्मरण

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- गिरीश्वर मिश्र भारत की आजादी का अमृत महोत्सव हर भारतीय के लिए जहां गर्व का क्षण है वहीं आत्म-निरीक्षण का अवसर भी प्रस्तुत करता है । पराधीनता की देहरी लांघ कर स्वाधीनता के परिसर में आना निश्चय ही गौरव की बात है । लगभग दो सदियों लम्बे अंग्रेजों के औपनिवेशिक परिवेश ने भारत की जीवन पद्धति को शिक्षा, कानून और शासन व्यवस्था के माध्यम से इस प्रकार आक्रांत किया था कि देश का आत्मबोध निरंतर क्षीण होता गया। इसके फलस्वरूप हम एक पराई दृष्टि से स्वयं को और दुनिया को भी देखने के अभ्यस्त होते गए । उधार ली गई विचार की कोटियों के सहारे बनी यथार्थ की समझ और उसके मूल्यांकन की कसौटियां ज्ञान-विज्ञान में नवाचार और आचरण की उपयुक्तता के मार्ग में आड़े आती रहीं और राजनैतिक दृष्टि से एक स्वतंत्र देश होने पर भी देश को मानसिक बेड़ियों से मुक्ति न मिल सकी। मानसिक अनुबंधन के फलस्वरूप पाश्चात्य को (जो स्वयं में मूलत...

भारत के आगामी 25 वर्ष और अमृत काल

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- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष के अमृत महोत्सव के बाद अब भारत के आगामी 25 वर्षों के लिए तय किए गए अमृत काल पर चर्चा शुरू हो गई है। अमृत महोत्सव के दौरान नई पीढ़ी में स्वतंत्रता संग्राम के प्रसंगों से नई ऊर्जा का संचार हो चुका है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की दूरदृष्टि ने इसे घर-घर पहुंचा दिया। इसमें आत्मनिर्भर भारत और विकास के अनेक पहलू दिखे। डिजिटल इंडिया अभियान के सप्तरंग भी सजे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी अमृत महोत्सव को व्यापक अवसर के रूप में स्वीकार किया। उनकी सरकार ने इस अवधि में अनेक उल्लेखनीय कार्य किए। हर घर तिरंगा अभियान जनान्दोलन के रूप दिखा। विधानसभा भवन भी इसकी अभिव्यक्ति कर रहा हैं। ई कार्यवाही की व्यवस्था ने इसमें चार चांद लगा दिए।उत्तर प्रदेश विधानसभा ने पांच वर्षों में अभिनव प्रयोग किए है। दो वर्ष पहले पेपरलेस बजट प्रस्तुत किया गय...

स्वतंत्र भारत में स्वराज की प्रतिष्ठा

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- गिरीश्वर मिश्र आजादी मिलने के पचहत्तर साल बाद देश स्वतंत्रता का 'अमृत महोत्सव’ मना रहा है तो यह विचार करने की इच्छा और स्वाभाविक उत्सुकता पैदा होती है कि स्वतंत्र भारत का जो स्वप्न देखा गया था वह किस रूप में यथार्थ के धरातल पर उतरा। स्वाधीनता संग्राम का प्रयोजन यह था कि भारत को न केवल उसका अपना खोया हुआ स्वरूप वापस मिले बल्कि वह विश्व में अपनी मानवीय भूमिका को भी समुचित ढंग से निभा सके। देश या राष्ट्र का भौगोलिक अस्तित्व तो होता है पर वह निरा भौतिक पदार्थ नहीं होता जिसमें कोई परिवर्तन न होता हो। वह एक गत्यात्मक रचना है और उसी दृष्टि से विचार किया जाना उचित होगा। बंकिम बाबू ने भारत माता की वन्दना करते हुए उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में 'सुजलां सुफलां मलयज शीतलां शस्य श्यामलां मातरं वन्दे मातरं' का अमर गान रचा था। 'सुखदां वरदां मातरं’ के स्वप्न के साथ यह मंत्र पूरे भारत के मानस में तब से...