– डॉ. प्रभात ओझा
साबरमती के किनारे दो दिन पहले शनिवार को प्रधानमंत्री का साढ़े सात हजार लोगों के साथ चरखा कातने का कार्यक्रम हुआ । ऐसा कर एक रिकॉर्ड भी बना। यह खादी उत्सव का हिस्सा था। स्वाभाविक रूप से इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने खादी के महत्व और दुनियाभर में उसकी उपयोगिता के बारे में बहुत कुछ कहा। कुछ लोग इस आयोजन को गुजरात के चुनावी वर्ष से जोड़कर देख रहे हैं, पर खादी से जुड़े चरखे का ऐतिहासिक महत्व है। तभी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस क्षेत्र में 2017 में चरखा संग्रहालय का तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उद्घाटन किया था। वह साल गांधी जी के चरखा खोज की शताब्दी का था। अब तो वह खोज 105 साल पुराना इतिहास बन चुकी है।
आज उस संग्रहालय के बाहर 12 फुट ऊंचा स्टेनलेस स्टील का चरखा दूर से ही चमकता है। अंदर आपको 1912 का चरखा भी देखने को मिल जाएगा। लोगों से उपहार में मिले बाकी चरखे भी 50 से 100 साल तक पुराने हैं। सवाल है कि इस चरखे की याद बार-बार क्यों आती है। इतिहास में झांककर देखें तो पता चलता है कि गांधी जी के समय तक चरखा कातने का काम खत्म हो चुका था। फिर चरखा मिले कहां! ऐसे में गुजरात में गांधी जी से मिली गंगाबाई ने उनका काम आसान कर दिया। स्वयं गांधी जी अपने लेखन में उन्हें गंगा बहन कहते हैं। गंगाबाई ने गुजरात में चरखे की तलाश की और वह मिला जाकर कर्नाटक में गायकवाड़ के बीजापुर में। गांधी जी का काम आसान हुआ। चरखा आत्मनिर्भरता ही नहीं आंदोलन का हथियार भी बना। समय के साथ बीजापुर की खादी भी मशहूर हुई।
चरखा, आत्मनिर्भरता और स्वदेशी। यह भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का ऐसा इतिहास है, जिसकी कहानी आज भी रोमांच से भर देती है। आज चरखा का ध्यान आते ही मानस में कई तरह के चित्र उभरते हैं, किंतु राष्ट्रपिता के हाथ में जिस धागे और सुतली के साथ लकड़ी का यंत्र दिखता है, वही उन सभी पर प्रभावी है। जरूरत के हिसाब से स्वयं गांधी जी ने पहल कर चरखे में सुधार कराए थे। यरवदा जेल और आगा खां पैसेल में कैद के दौरान उन्होंने कारीगरों की मदद से यह किया। फिर साबरमती आश्रम में बापू के साथ रहे मगनलाल गांधी ने भी इस सुधार को आगे बढ़ाया था।
गांधी जी 1915 में जब भारत आए, उन्हें चरखे के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। वे अपनी भड़ौच यात्रा के बारे में लिखते हैं कि लगभग घसीटते हुए कुछ मित्र उन्हें वहां ले गए। उन्हें वहां की शिक्षा परिषद दिखाई गई। भड़ौच में ही गंगाबाई से गांधी जी की मुलाकात हुई। दूसरी बार वह गोधरा के परिषद में मिलीं। गांधी जी के स्वभाव में था, शुरुआत में तो जरूरत भी थी कि वे भारत की आत्मा को जानने के लिए लोगों से चर्चा कर रहे थे। बातचीत में मशीनों के बढ़ने और भारतीय ग्रामीण उद्योग धंधों के प्रति गांधी जी की चिंता झलकी। अंग्रेज भारत के संसाधनों से ही कमाई कर ब्रिटेन की जरूरतें पूरी कर रहे थे। दूसरी ओर यहां के ग्रामीण उद्योग पर पानी फिर रहा था। गांधी ऐसे किसी प्रतीक की तलाश में थे, जो ग्राम्यजन के करीब हो। इसी विचार-विमर्श में चरखे की बात आई, परन्तु साथ ही उसके प्रयोग में नहीं होने की भी समस्या बताई गई। चरखे जैसे यंत्र का चलन बंद हो चुका था। गांधी जी गंगा बहन की क्षमता और हिम्मत के बारे में कहते हैं कि वह घुड़सवारी जैसे कठिन काम भी कर सकती थीं। उन्होंने चरखे की तलाश शुरू की। गुजरात भर में नहीं मिला। खादी वस्त्र के लिए आज प्रसिद्धि पा चुके बीजापुर में कुछ चरखे मिले तो वे भी मकानों के बारजों पर डाल दिए गए थे।
गांधी जी ने उन चरखों की मरम्मत कराई। सूत के लिए रूई की पूनी उपलब्ध कराने का काम उमर भाई सोबानी नाम के एक कारखाना मालिक ने किया। फिर गांधी जी को लगा कि सोबानी भाई के कारखाने से पूनी लेने पर अंग्रेजों के कारखानों के खिलाफ ग्राम्य उद्योग का अभियान आगे नहीं बढ़ेगा। इस पर गंगा बाई ने बुनकरों को बसाकर यह दिक्कत भी खत्म कर दी। फिर तो समय के साथ चरखा और आजादी के आंदोलन के बीच रिश्ते की कहानी अमर हो गई। अंग्रेज एक समय इस चरखे से भी ऐसे तिलमिला उठे थे कि जगह इसके कातने वालों पर जुल्म ढाए और चरखे जला दिए गए। वही चरखा 105 साल बाद भी आत्मनिर्भता और स्वदेशी का प्रतीक बनकर उपस्थित हुआ है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी ऐसे राष्ट्रीय प्रतीकों को अपनाने वाले लोगों में हैं।
(लेखक, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र से संबद्ध हैं। )