Thursday, November 21"खबर जो असर करे"

सोशल मीडिया पर फेक न्यूज की रफ्तार, चुनौती अपार

– ऋतुपर्ण दवे

जितनी रफ्तार से हम विज्ञान के साथ रचते-बसते और जीने की नई-नई तरकीबें सीखते जा रहे हैं, ठीक वैसे ही तमाम चुनौतियां मुंह बाएं आ खड़ी हैं। वास्तव में यह दौर इंटरनेट मीडिया का है जिससे हर हाथ को दुनिया तक अपने संदेशों को पहुंचाने की बहुत बड़ी ताकत मिली। अक्सर यही स्वतंत्रता के उपयोग और दुरुपयोग से झूठे संदेश या फेक न्यूज समाज, देश और दुनिया के लिए बड़ी चुनौती बन जाते हैं। इस पर लगाम या कहें झूठे प्रसार को लेकर भारत सहित दुनिया भर में तमाम जतन किए जा रहे हैं, लेकिन सच यही है कि यह बड़ी चुनौती है। तमाम तरह के कानूनों के बावजूद अक्सर लोग उनके मोबाइल में आए या बनाए मैसेज को बिना सोचे, समझे और बुद्धि, विवेक से काम लिए सीधे आगे बढ़ा देते हैं या फॉरवर्ड कर देते हैं। बस इसी खेल के चलते बेहद कामयाब इंटरनेट तकनीक बड़ी चुनौती बन गई है।

जब इंटरनेट नहीं था तब लोग अखबारों पर ही खबरों के लिए निर्भर थे और विश्वनीयता इतनी कि कभी भी इतने और अब जैसे रोजाना सवालिया निशान नहीं लगे। रियल टाइम खबरों के इस दौर में सच कम, झूठ ज्यादा है। स्थिति कितनी भयावह और अलग है कि लोग पहले अखबारों को खोजकर कतरनों की फोटो कॉपी करा प्रसारित करते थे। आज ठीक उलट है जहां झूठी खबरें पलक झपकते ही लाखों लोगों द्वारा बिना सत्यता जांचे शेयर या ट्वीट-रिट्वीट हो जाती हैं। इसी आड़ में अक्सर लोग अपनी निजी दुश्मनी तक भंजा लेते हैं और दुनिया झूठ के फरेब को काफी देर बाद समझ पाती है। लेकिन तक नफा-नुकसान का बड़ा खेल अपना गुल खिला चुका होता है।

सोशल कहें या इंटरनेट मीडिया जो भी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जरिया मान लेना भी कुतर्क है क्योंकि इसका जितना बड़ा दायरा है उतने ही बंधन। ऐसी स्वतंत्रता व अनाप-शनाप कुछ भी लिख, पढ़ और बोलने की आजादी किसी को नहीं है जो किसी दूसरे के मान-सम्मान या निजता को चोट पहुंचाती हो। इसका ताजा उदाहरण हाल ही में राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता खत्म कर देने के उदाहरण से समझा जा सकता है।

अक्सर गैर भरोसेमंद स्रोतों और आधी-अधूरी जानकारियों के चलते ही फेक न्यूज या झूठी खबर इतनी तेजी से फैलती यानी वायरल होती हैं कि अक्सर समझदार लोग भी गच्चा खा जाते हैं। कई मौकों पर देखने में आता है कि ऐसी खबरों से शहर से लेकर गांव और घर-घर लोग बेचैन हो जाते हैं। उत्तेजना फैल जाती है और लोग और समूह बेसिर-पैर की बातों के चलते गुस्से में आकर बड़ी-बड़ी घटनाएं तक कर बैठते हैं। ऐसे तमाम और दर्जनों क्या लाखों उदाहरण मिलेंगे जहां दुनिया भर में के कई प्रान्त और देश तक झूठी खबरों की झुलसन में बदहाल और बेहाल होते देखे गए।

वाकई में सोशल मीडिया एक ऐसा बिना बारूद का बम गोला बन चुका है जिससे शहर के शहर आग के शोलों से जल उठते हैं। सरकारों और जिम्मेदारों के लिए सूचना का यह सोशल तंत्र नॉन सोशल होकर वो रूप दिखाता है कि एक निर्जीव साधन जिन्दा और समझदार लोगों की आपसी टकराहट में आग में घी और पेट्र्रोल का काम करता है। करीब सवा दो बरस पहले दुनिया ने खास उदाहरण देखा जिसमें दुनिया का दारोगा कहलाने वाले अमेरिकी संसद परिसर में हुई हिंसा के बाद माइक्रो ब्लॉगिंग वेबसाइट ट्विटर ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पर्सनल अकाउंट को स्थायी रूप से सस्पेंड कर दिया क्योंकि आशंका थी कि आगे भी उनके हैंडल से हिंसा के और भड़काने की जोखिम का खतरा था। उनके फेसबुक और इंस्टाग्राम अकाउंट्स को भी अनिश्चितकाल तक के लिए सस्पेंड कर दिया। हालांकि पारदर्शिता की दुहाई देकर लगी रोक के बावजूद दुनिया में कहीं कोई फर्क दिखा नहीं।

अब तो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म में कमाई के नाम पर ब्लू टिक बेचकर झूठी शान-ओ-शौकत के दिखावे से आगे कितना कुछ घटेगा इसका अंदाजा मुश्किल है। अक्सर नीले और नारंगी सही लकीर वाले अकाउंट पाने की कशमकश रुपयों की गर्मी से खत्म होती है। अब केंद्र सरकार का सूचना प्रौद्योगिकी संशोधन नियम, 2023 जो 2021 के संशोधन नियमों के साथ 6 अप्रैल, 2023 को जारी होते ही लागू हो गया है, इस पर लोगों की मिली-जुली प्रतिक्रिया हैं। जहां कई इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ कुठाराघात तो कई सोशल मीडिया में फेक न्यूज की पहचान करने के सरकार के अधिकार को सही मानते हैं।

एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया का भी मानना है कि ये प्रेस की आजादी पर हमला है। अब इलेक्ट्रॉनिक और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन एक संस्था तय करेगी कौन सी सोशल मीडिया पोस्ट या खबर भ्रामक है। इसके दायरे में गूगल, फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब से लेकर हर तरह की समाचार और गैरसमाचार कंपनियां आएंगी। सच तो ये है कि यह विशेषाधिकार कानून मध्यस्थ को उसके यूजर के किसी भी आपत्तिजनक सामग्री ऑनलाइन पोस्ट करने पर उन्हें कानूनी कार्रवाई होने से बचाता है, लेकिन फर्जी या गलत जानकारी को न हटाने की स्थिति में प्लेटफॉर्म्स भी जद में होंगे तथा कन्टेंट को परोसने वाला यूजर तो दोषी होगा ही।

यकीनन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म में सेवा देने वाले से ज्यादा सेवा लेने वाले की सोच प्रभावित करती है। सेवा लेना वाला इस दिशा में समाज में सकारात्मक जिम्मेदारियां निभा सकता है। अगर ऐसा न हुआ तो मुकदमों से लदी भारतीय न्याय प्रणाली पर एक बोझ से ज्यादा कुछ नहीं साबित होगा।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)