– सुरेश हिन्दुस्थानी
वर्तमान में भारत में ऐसे कई कारण हैं, जो राष्ट्रीय विकास में बाधक बन रहे हैं। इसमें एक अति प्रमुख कारण बार-बार चुनाव होना है। देश में होने वाले चुनाव के दौरान लगने वाली आचार संहिता के चलते सरकार का कामकाज भी प्रभावित होता है। हमारे देश में किसी न किसी राज्य में हर वर्ष चुनाव के प्रक्रिया चलती रहती है। चुनाव के दौरान संबंधित सरकार कोई बड़ा निर्णय नहीं ले सकती। चुनाव होने के कारण राजनीतिक दल हर साल केवल चुनाव जीतने की योजना ही बनाते रहते हैं। इस कारण देश के उत्थान के बारे में योजना बनाने या सोचने का उतना समय भी नहीं मिल पाता, जितना सरकार का कार्यकाल होता है। इसलिए वर्तमान में जिस प्रकार से एक साथ चुनाव कराने की योजना पर मंथन चल रहा है, वह देश को उत्थान के मार्ग पर ले जाने का एक अभूतपूर्व कदम है।
अभी केंद्र सरकार ने देश में एक साथ चुनाव कराने के बारे में प्राथमिक कदम उठाकर प्रक्रिया प्रारंभ कर दी है। इसके लिए एक समिति भी बनाई है, जो देश के राजनीतिक दलों और आम जनता से इसके हित और अनहित के बारे में विमर्श करेगी। जब सब ओर से सकारात्मक रुझान मिलेगा, तब यह धरातल पर उतारा जाएगा। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या एक साथ चुनाव कराया जाना उचित है? यकीनन इसका उत्तर यही होगा कि यह ठीक कदम है। लेकिन देश में कुछ राजनीतिक दल संभवतः इसकी गंभीरता को समझ नहीं पा रहे हैं। इस कदम को संकुचित राजनीति के भाव से देख रहे हैं। अगर यह देशभाव के दृष्टिकोण से देखेंगे तो हमें यह कदम अच्छा ही लगेगा।
वर्तमान में केन्द्र सरकार और चुनाव आयोग इस बारे में गंभीरता पूर्वक चिंतन कर रहे हैं। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने एक बार अपने अभिभाषण में भी एक साथ चुनाव कराए जाने पर जोर दिया था। पूर्व राष्ट्रपति ने स्पष्ट कहा था कि बार-बार होने वाले चुनाव से विकास में बाधा आती है, ऐसे में देश के सभी राजनीतिक दलों को एक साथ चुनाव कराने के बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए। सच कहा जाए तो एक साथ चुनाव कराया जाना राष्ट्रीय चिंता का विषय है, जिसे सभी दलों को सकारात्मक दृष्टि से लेना होगा। हम यह भी जानते हैं कि देश के स्वतंत्र होने के पश्चात लम्बे समय तक एक साथ चुनाव की प्रक्रिया चली, लेकिन कालांतर में कई राज्यों की सरकारें अपने कार्यकाल की अवधि को पूरा नहीं कर पाने के कारण हुए मध्यावधि चुनाव के बाद यह क्रम बिगड़ता चला गया और चुनाव अलग-अलग समय पर होने लगे। इसके कारण देश में सरकारी कामकाज की प्रक्रिया तो बाधित होती ही है, साथ ही सरकारी कामकाज को लेकर सक्रिय रहने वाले सरकारी अधिकारी और आम जनता भी ऐसी बाधाओं के चलते निष्क्रियता के आवरण को ओढ़ लेते हैं। यह भी काम में रुकावट का कारण बनती है। इन सभी कारणों के निदान के लिए देश में एक साथ चुनाव कराने के विषय पर सभी राजनीतिक दलों के बीच संवाद बढ़ना चाहिए और इस बारे में आम सहमति बनायी जानी चाहिए।
केंद्र सरकार की मंशा स्पष्ट है, लेकिन विपक्षी राजनीतिक दल इस बारे में क्या राय रखते हैं, यह अभी तक सामने नहीं आ पाया है। हालांकि देशहित के मुद्दे पर विपक्षी राजनीतिक दलों को भी इस बारे में सरकार के रुख का पूरी तरह से समर्थन करना चाहिए। एक साथ चुनाव होने से देश में विकास की गति को समुचित दिशा मिलेगी, जो बहुत ही आवश्यक है। क्योंकि देश में बार-बार चुनाव होने से जहां राजनीतिक लय बाधित होती है, वहीं देश को आर्थिक बोझ भी झेलना पड़ता है। इसलिए एक साथ चुनाव कराए जाने के अच्छे विचार को कैसे अमल में लाया जा सकता है, इसके बारे में गंभीरता पूर्वक चिंतन करना चाहिए। यह कठिन कार्य नहीं हैं, क्योंकि दुनिया के कई देशों ने भी इस प्रकार की नीतियां बनाई हैं, जिसके अंतर्गत एक साथ चुनाव कराए जाते हैं और वे देश विकास के पथ पर निरंतर रूप से आगे बढ़ते जा रहे हैं, जब ऐसा विदेशों में हो रहा है और भारत में भी ऐसा होता रहा है, तब अब भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता। भारत में ऐसा होना ही चाहिए।
जब से देश में नरेन्द्र मोदी की सरकार आई है, तब से ही देश में राष्ट्रीय हित की दिशा में अनेक काम किए जा रहे हैं। यह बात भी सही है कि इन कामों का वास्तविक स्वरूप भविष्य में ही सामने आएगा। क्योंकि देश में लम्बे समय से एक मानसिकता बन गई थी कि अब भारत से समस्याओं का निदान संभव ही नहीं है। उस समय सरकारों के संकल्प में कमी दिखाई देती थी। सरकारें हमेशा इसी उधेड़बुन में लगी रहती थीं कि हमारी सरकार कैसे बचे या हमारी सरकार कैसे फिर से बने। इसी कारण कई निर्णय ऐसे भी किए जाते रहे हैं, जिससे देश की विकास की गति बाधित होती गई और स्वतंत्रता के बाद देश को जिस रास्ते पर जाना चाहिए था, उस रास्ते पर न जाकर केवल स्वार्थी राजनीति के रास्ते पर चला गया। जिसके कारण देश ने अनेक उतार चढ़ाव भी देखे हैं। वर्तमान की कई समस्याएं अपने देश की सरकारों की ही देन है। सरकारों ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के बजाय देशहित के काम किए होते तो संभवत: देश में इतनी विकराल स्थिति पैदा नहीं होती।
मोदी सरकार ने देश की स्थिति को सुधारने के लिए कई अभूतपूर्व निर्णय किए हैं। सरकार ने जो नोटबंदी की थी, उसमें भले ही विपक्षी राजनीतिक दलों ने आलोचना की, लेकिन इसके बाद मोदी सरकार की ख्याति बढ़ती चली गई और लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को अपेक्षा से ज्यादा सफलता मिली है। यानी साफ शब्दों में कहा जाए तो यही कहना समुचित होगा कि जो कदम विपक्ष को खराब लगा, वह देश की जनता की नजर में एक दम सही था। मोदी सरकार का एक साथ चुनाव कराने का कदम भी कुछ ऐसा ही है, जिसकी विपक्षी दल तो आलोचना करेंगे ही, लेकिन जनता निश्चित रूप से इसे सही कदम मानकर इसका समर्थन ही करेगी। अगर देश में लोकसभा और राज्यों के चुनाव एक साथ होने पर राजनीतिक दलों की सहमति बनती है तो इससे आम जनता को राहत ही मिलेगी, लेकिन सरकार विरोधी राजनीति करने वाले राजनीतिक दल इस पर क्या कहेंगे। हालांकि देश में जनहित के साथ ही राष्ट्रीय हितों के प्रति सबको समर्थन देना ही चाहिए, क्योंकि राष्ट्रीय हित से बड़ा कुछ हो ही नहीं सकता।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)