Friday, November 22"खबर जो असर करे"

शिवराज ने 2023 की स्क्रिप्ट लिखनी शुरू कर दी…!

– ऋतुपर्ण दवे

देश का दिल मध्य प्रदेश हमेशा से ही अपनी सियासत के लिए बेहद अलग मुकाम रखता रहा है। एक दौर हुआ करता था जब यहां की सियासत में रियासत बेहद खास होती थीं। अब भी हैं। लेकिन वक्त कुछ बदला जरूर है। फिलहाल एक बेहद आम और साधारण किसान परिवार से आने वाले तथा अपने दमखम पर राजनीति में खास मुकाम तक पहुंचे शिवराज सिंह चौहान न केवल मुख्यमंत्री हैं बल्कि भाजपा के मुख्यमंत्रियों में अब तक के सबसे लंबे कार्यकाल को पूरा करने का रिकॉर्ड बना निरंतर बने हुए हैं। उनके भविष्य को लेकर चाहे जितनी और जैसी अटकलबाजियां लगें, वह केवल कयास से ज्यादा कुछ नहीं निकलीं।

यह वही प्रदेश है जहां पहले भी और अब भी राजघराने या यूं कहें कि राज परिवार, जागीरदार और जमींदार, सियासत में खुद को सफल बनाने और जनता से जुड़े रहने के लिए किसी न किसी तरह से सक्रिय हैं। देसी रियासतों के विलय के बाद लोकतंत्र के जरिए जनता पर शासन करने की सफल नीति को अपना रहे। मध्य प्रदेश में अब तक 32 मुख्यमंत्री बने जिनमें 4 राजघरानों से रहे हैं जिन्होंने 7 बार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। संविद सरकार में गोविंद नारायण सिंह, उनके इस्तीफे के बाद गोंड आदिवासी राजा नरेशचंद्र सिंह। बाद में कांग्रेस सरकार में अर्जुन सिंह तीन बार तो दिग्विजय सिंह दो बार मुख्यमंत्री बने।

मध्य प्रदेश में ग्वालियर, राघोगढ़, रीवा, चुरहट, नरसिंहगढ़, मकड़ाई, खिचलीपुर, देवास, दतिया, छतरपुर, पन्ना जैसे छोटे-बड़े राजघराने राजनीति में काफी सक्रिय और सफल थे और हैं। लेकिन गणना की जाए तो मध्य प्रदेश की सियासत की डोर कभी राजनीतिज्ञों तो कभी आम हाथों में ज्यादा रही। अब तक प्रदेश को 32 मुख्यमंत्री मिले जिनमें रविशंकर शुक्ल (एक बार), भगवंतराव मंडलोई, कैलाश नाथ काटजू, द्वारका प्रसाद मिश्रा (दो-दो बार), गोविंद नारायण सिंह, नरेशचंद्र सिंह (एक-एक बार), श्यामाचरण शुक्ल (तीन बार), प्रकाश चंद्र सेठी (दो बार), कैलाशचंद्र जोशी, विरेंद्र कुमार सकलेचा (एक-एक बार), सुंदरलाल पटवा (दो बार), अर्जुन सिंह (तीन बार), मोतीलाल वोरा, दिग्विजय सिंह (दो-दो बार), उमा भारती, बाबूलाल गौर, कमलनाथ (एक-एक बार) और शिवराज सिंह चौहान तीन बार पहले और चौथी बार अब तक हैं। जबकि प्रदेश में तीन बार राष्ट्रपति शासन भी लगा।

निश्चित रूप से मध्य प्रदेश की राजनीति कुछ अलग तो काफी घुमावदार भी है। कभी लगता है कि राजघरानों के प्रति विश्वास बरकरार है तो कभी आदिवासी वोट बैंक निर्णायक लगते हैं। चुनाव में आदिवासियों का साफ प्रभाव यही दिखता है। बीते दो विधानसभा चुनाव के आंकड़े देखें तो सब कुछ समझ आता है। यहां आदिवासियों की बड़ी आबादी है जिनका 230 विधानसभा सीटों में से 84 पर सीधा-सीधा प्रभाव है। आदिवासी बहुल इलाके में भाजपा को 2013 में 59 सीटों पर जीत हासिल हुई थी जबकि 2018 में 84 में 34 सीटों पर सिमट कर रह गई। शायद इन्हीं कम हुई 25 सीटों के चलते तब भाजपा सीधे-सीधे सरकार बनाने से चूक गई थी। इसे यदि आरक्षण के लिहाज से देखें तो 2013 में आरक्षित 47 सीटों में भाजपा 31 पर जीती जबकि कांग्रेस केवल 15 ही जीत पाई। वहीं 2018 के नतीजे लगभग उलट रहे जहां कांग्रेस ने 30 सीटें जीती तो भाजपा महज 16 पर सिमट गई। एक निर्दलीय भी जीता।

इसी के चलते तब मध्य प्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार बनी। लेकिन अन्दरुनी कलह और सत्ता में पकड़ बनाए रखने, वर्चस्व की लड़ाई में पारस्परिक विफलता के चलते केवल 15 महीनों में हुई बड़ी बगावत से कांग्रेस सरकार गिर गई। इसके लिए तब दो राजघरानों ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह की रस्साकशी सबने देखी। कमलनाथ और उनके सिपहसलारों पर उंगलियां भी उठीं। आखिर 15 सालों के निर्वासन के बाद सत्ता में लौटी कांग्रेस को 15 महीनों में ही चलता कर दिया। इसमें ग्वालियर राजघराने के ज्योतिरादित्य सिंधिया की सबसे खास भूमिका रही। इसी के बाद चौथी बार शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने। तीन और विधायकों के इस्तीफे, तीन के निधन से मध्य प्रदेश में खाली हुई 28 सीटों पर 3 नवंबर 2020 को मतदान हुआ जिसमें भाजपा 19 तो कांग्रेस केवल 9 सीट जीत पाई। आखिर बहुमत के आंकड़ों में कांग्रेस पिछड़ गई और बचे कार्यकाल के वनवास पर मुहर लग गई।

हाल ही में 347 निकाय चुनावों में भाजपा ने 256 में बढ़त दर्ज की। श्रेय शिवराज को मिला। अब शिवराज रोजाना कभी समीक्षा तो कभी मॉर्निंग एक्शन में तो कहीं जनसभा में ही अधिकारियों को फटकार और निलंबन के आदेश देते हुए बरखास्तगी की चेतावनी और सख्ती भरे तेवर दिखाते हैं। शहडोल, सिंगरौली, पन्ना, बालाघाट, उमरिया, जबलपुर, सिवनी सहित कई जिलों के उदाहरण सामने हैं। विकास कार्य समय पर कराने, आवास योजनाओं में लेटलतीफी रोकने, ढंग से राशन वितरण, व्यवस्थित सीएम राइज स्कूल, दुरुस्त शहरी पेयजल योजना, आंगनबाड़ी में पेयजल, बदहाल बिजली व्यवस्था, खस्ताहाल सड़कें, सार्वजनिक स्थानों पर अतिक्रमण यानी जनता से सीधे जुड़े मसलों को लेकर शिवराज बेहद सख्त दिखते हैं। जहां से सही जवाब नहीं मिलता या अधिकारी किन्तु-परन्तु बताते हैं तो वहीं फटकार लगाते हैं। शहडोल का उदाहरण काफी है। ऐसा लगता है कि सरकार की आंख,कान और हाथ बनी ब्यूरोक्रेसी को लेकर उनका हालिया अनुभव काफी कड़वा रहा जो उनके नए एक्शन से झलकता है। सिंगरौली, जबलपुर के रोड शो, धनपुरी (शहडोल) की जनसभा और उमरिया की वर्चुअल सभा इसके सशक्त उदाहरण हैं। वह सार्वजनिक समीक्षा करते हैं जिसे तमाम मीडिया माध्यम लाइव दिखाते हैं। उनका यह मनोविज्ञान ब्यूरोक्रेट्स को भले ही न भाए लेकिन आमजन को लुभा रहा है।

मध्य प्रदेश में जहां कांग्रेस अब भी कमजोर दिख रही है तो शिवराज सिंह चौहान को लेकर भी सुर्खियां कम नहीं होतीं। भाजपा संसदीय बोर्ड से बाहर होने के बावजूद उनकी शालीनता ने कहीं न कहीं राष्ट्रीय नेतृत्व को प्रभावित तो किया होगा। वहीं यह कहना कि मुझसे दरी बिछाने को कहा जाएगा तो बिछाऊंगा। यह उनकी बुद्धिमत्ता है जो खुद को पार्टी से बड़ा कभी नहीं दिखाते। उनकी हालिया राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से गर्मजोशी भरी मुलाकातें और अक्टूबर में पंचायती राज के नवनिर्वाचित सदस्यों के सम्मेलन में मध्य प्रदेश आने की हामी, मिशन 2030 का विजन तैयार कर पांच मेगा प्रोजेक्ट प्रधानमंत्री के हाथों शुरू करा पांच बड़ी जनसभाओं के लिए आमंत्रित करना शिवराज की राजनीतिक चातुर्यता के साथ बताता है कि निगाहें 2023 के विधानसभा और 2024 के आम चुनाव से बहुत आगे देख रही हैं। इससे पार्टी में उनका प्रभाव और बढ़ेगा। वहीं प्रतिद्वंद्वियों को मजबूरन ही सही प्रधानमंत्री की सभा में शिवराज के साथ रहना ही होगा। शायद यही गुर शिवराज सिंह को और मजबूत करता है।

समीकरण कैसे भी बनें शिवराज सिंह की मजबूती में कोई कमीं नहीं दिखती। ऐसे में सवाल उठता है क्या कांग्रेस भी बिखराव को थाम असंतुष्टों का साध पाएगी? बावजूद इसके मध्य प्रदेश में फिलहाल कोई तीसरी ताकत उभरती नहीं दिखती। इसलिए 2023 का सीधा मुकाबला भाजपा व कांग्रेस में होगा। बाजी वही मारेगा जो गुटीय बिखराव समेट जनता से जुड़ेगा। बस देखना इतना है कि 2023 में किसे संगठन और जनता से सत्ता का वॉक ओवर मिलेगा और कौन फिर वनवास झेलेगा।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)