– रमेश सर्राफ धमोरा
वसंत पंचमी से ही राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में होली का हल्ला शुरू हो जाता है। यहां के सभी गांवों के मोहल्लों में अपनी- अपनी चंग (ढफ) पार्टी होती है। चंग बजाने के साथ धमाल का सिलसिला गणगौर तक चलता है। चंग वादन की अभिव्यक्ति प्रभावशाली होती है। चंग पर थाप पड़ते ही लोग नाचने पर मजबूर हो जाते हैं। चंग के साथ गाये जाने वाले लोकगीतों को धमाल कहा जाता है। धमाल में होली से सम्बन्धित स्थानीय किस्से, कहावतें होती हैं।
पुरुष चंग को अपने एक हाथ से थामकर और दूसरे हाथ से छड़ी के टुकड़े से व हाथ की थपकियों से बजाते हैं। साथ में झांझ, मंजीरे बजाते रहते हैं। एक घेरा बनाकर लोग धमाल गाते हैं। इसमें भाग लेने वाले पुरुष ही होते हैं, किंतु उनमें से कुछ पुरुष महिला वेष धारण कर नाचते हुये लोगो का मनोरंजन करते हैं। चंग वादन के बीच में गांव के पुरुषो द्वारा विभिन्न प्रकार के सांग निकाले जाते हैं। गांवो में ढफ मण्डली की कोई विशेष वेष-भूषा नहीं होती हैं। लोग प्रतिदिन पहनने वाले कपड़े पहनकर ही ढफ बजाते हैं।
ढफ वादन का आयोजन रात को होता है। ढफ वादन बहुत ही अनुशासित, व्यवस्थित तरीके से होता है। शेखावाटी इलाकों में देर रात तक ढप की थाप पर गूंजती होली की धमाल फाल्गुनी रंग को परवान चढ़ा देती है। गांवों की चौपालों पर रसिकों की टोलियां ढफ की थाप पर थिरकते हुए दिखाई देती हैं। कलाप्रेमी होली तक चलने वाले इन आयोजनों में धमालों की टेर लगाते हैं। जो देखने-सुनने वालों को भी क्षेत्रीय संस्कृति के आनंद की अनुभूति करवाती है। पहले गांवों में होली के दिनो में औरतें घरों के बाहर चौक में इक्कठी होकर होली के गीत गाती थी जिन्हें क्षेत्र में होली के बधावा गाना कहा जाता है। हालांकि अब ये नजारे कम ही देखने को मिलते हैं। शेखावाटी में ढूंढ का चलन अभी भी व्याप्त है। परिवार में पुत्र के जन्म होने पर उसके ननिहाल पक्ष से कपड़े, मिठाई दिये जाते हैं, जिनकी पूजा कर बच्चे को कपड़े पहनाये जाते हैं व मिठाई मोहल्ले में बांटी जाती है। आजकल क्षेत्र में बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान के अन्तर्गत बेटी जन्म को बढ़ावा देने के मकसद से गांवों में बेटी के जन्म पर भी ढ़ूंढ पूजना प्रारम्भ हुआ है। जो कन्या भ्रूण हत्या रोकने की दिशा में एक सकारात्मक प्रयास साबित होगा।
चंग का निर्माण भेड़ के चमड़े को धूप में सुखा कर काठ के गोल घेरे में चढ़ाकर किया जाता है। इस पर हल्दी का लेप लगाया जाता है। इन चंगों पर विभिन्न प्रकार के चित्र बनाने के साथ ही ढफ मण्डलियों के नाम भी लिखे जाते हैं। वर्षों से ढफ बना रहे चिराना के दौलतराम सैनी ने बताया कि चिराना में बनने वाले ढफ वजन में हल्के व मजबूत होते हैं। ढफ का घेरा बनाने के लिए आम के पेड़ की लकड़ी काम में ली जाती है जो काफी हल्की और मजबूत होती हैं। ढफ अमूमन 22 से 32 इंच तक के होते हैं। चंगों पर मंढने के लिए भेड़ की खाल मंगवाई जाती है। खाल को आकड़े के दूध से साफ करके गुड़, मेथी, गोंद का घोल बनाकर उससे खाल को लकड़ी के घेरे पर चिपकाया जाता है। इसे छांव में ही सुखाया जाता है। नवलगढ़ में ढफ बनाने वाले मिंतर खटीक ने बताया कि वह अपना पुस्तैनी काम संभाल रहा है। लेकिन अब धीरे-धीरे चंग का प्रचलन कम होने लगा हैं।
ढफ बनाने वालों का कहना है कि किसी जमाने में हमारे पास खरीदारों की लाइन लगती थी। अब स्थिति बिल्कुल विपरीत है। नए लोगों का रुझान दिन प्रतिदिन घटने तथा महंगाई के कारण इनकी ब्रिकी घटने लगी हैं। ढफ विक्रेताओं का कहना है कि आज के युवा को ढफ बजाना भी नहीं आता है वो सिर्फ कैसेट के माध्यम से ही धमाल सुनते हैं। इनकी जगह फिल्मी गानों ने ले ली हैं। पहले जहां वसंत पंचमी से ही ढफ की आवाज सुनने लग जाती थी वो अब होली पर भी सुनाई नहीं दे रही है। शहरो में जरूर कई संस्थान धमाल पार्टी का आयोजन करवाते हैं। क्षेत्र में मण्डावा, फतेहपुर शेखावाटी, रामगढ़ शेखावाटी की ढफ मण्डलियां कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई, बेंगलुरु, हैंदराबाद,सूरत,अहमदाबाद सहित देश,प्रदेश के विभिन्न शहरों में अपनी प्रस्तुति देने जाती रहती हैं। सरकारी स्तर पर इस लोककला को जिंदा रखे हुए कलाकारों को किसी भी प्रकार का प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा हैं। हालात ऐसे ही रहे तो आने वाली पीढ़ी होली की बातें सिर्फ कहानियों में ही सुना करेगी।