Friday, November 22"खबर जो असर करे"

रूबी आसिफ को जला भी दोगे तब भी इस्लाम की मूर्ति पूजा को कैसे करोगे बंद ?

– डॉ. मयंक चतुर्वेदी

पंथ के स्तर पर इस्लाम को लेकर यही मान्यता है कि वह मूर्ति या चित्र पूजा को नहीं मानता। इसी धारणा को आधार मानकर सदियों से अनेक संस्कृतियों को नष्ट करने का सिलसिला जारी है, क्योंकि उनमें मूर्ति जीवन्त है, उसकी प्राण प्रतिष्ठा है और आदिकाल से ये सभी संस्कृतियां मूर्ति पूजा करती आ रही हैं। यही कारण है कि मजहबी उन्माद और इस्लाम के आक्रमण से आक्रान्त कई सभ्यताएं अब तक नष्ट हो चुकी हैं। किंतु कुछ सभ्यता एवं संस्कृतियों ने अपने संघर्ष को बनाए रखा है और वे सभी आज भी हमारे बीच जीवन्त हैं।

कहना चाहिए कि इन्हीं जागृत संस्कृतियों में से एक हिन्दू या सनातन संस्कृति भी है। भारत में आई इस इस्लामिक आंधी के प्रभाव में अनेक स्थलों पर मतान्तरण भी देखा गया, फिर वह छल से, बल से अथवा प्रभाव से ही क्यों न हो ? परन्तु क्या ऐसे प्रभाव को पूर्ण समाप्त किया जा सका जो हिन्दू न रहते हुए भी पूर्ववर्ती विचार या धाराओं का सम्मान करना जानते हैं ? ऐसा ही एक नाम इन दिनों उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ की रूबी आसिफ खान का चल रहा है। पहले इनके द्वारा अपने घर में श्रीगणेश स्थापना, फिर मां भगवती की स्थापना और निरंतर चल रही उनकी साधना पर कट्टर इस्लाम विरोध जता रहा है ।

हो सकता है रूबी खान के इस कार्य को कई लोग चर्चाओं और मीडिया में बने रहने का कारण मानें और उसे इसी रूप में स्वीकार्य करें। किंतु इस बात को भी नहीं नकारा जा सकता कि रूबी जो कर रही हैं, वह भारत की वृहद सांस्कृतिक विरासत का ही हिस्सा है, जिसमें कि इस्लाम स्वीकार्य करने के बाद भी लोग मूर्ति पूजा को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते हैं। फिर प्रश्न यह भी है कि जिस इस्लाम के बारे में यह माना जाता है कि वह एकेश्वरवादी पंथ है और मूर्ति से मुक्त है, क्या वास्तविकता में ऐसा है भी ?

यदि यही सच होता तो बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन को यह वक्तव्य देने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि ‘एक ओर मुसलमान मूर्ति का विरोध कर रहे है वहीं, काबा और मक्का में मूर्ति की ही पूजा करते हैं। कट्टरपंथी, एक तरफ मूर्ति पूजा हराम बताते तो दूसरी ओर काबा में काले पत्थर की पूजा कर रहे हैं।’ तस्लीमा नसरीन की कही बातों को स्वीकार्य करें तो कहना होगा, मुसलमानों में हर स्तर पर मूर्तिपूजा होती है! यदि यह सच नहीं है, फिर क्यों इस एक बात पर सहमत होते हुए भी कि न अल्लाह और न उनके आखरी पैगंबर मुहम्मद साहब की कोई तस्वीर या मूर्ति बनाई जा सकती है। फिर भी मुसलमान इस विषय पर भावुक हो जाते हैं। वे फ्रांस के शार्ली हेब्दो और डेनमार्क के जेलैंड्स पोस्टेन में मोहम्मद साहब पर बने कार्टूनों के खिलाफ दुनिया भर में हिंसक और शांतिपूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए दिखाई देते हैं?

तत्कालीन समय में इस मामले को लेकर हिंसा कितनी गहरी थी, वह इन घटनाओं से समझा जा सकता है। पेरिस में साप्ताहिक फ्रेंच पत्रिका के दफ्तर पर हमले में कम से कम बारह लोग मारे गए। पैगंबर के अपमान का बदला लेने का ऐलान करते हुए कुछ सशस्त्र नकाबपोशों ने राकेट लांचर और एके-47 रायफलों से अंधाधुंध फायरिंग की थी। तीन सशस्त्र हमलावर चार्ली हेब्दो पत्रिका के मुख्यालय की इमारत में घुसने के बाद पैगंबर का बदला लिया और अल्लाह ओ अकबर बोलते सुने गए। दूसरी घटना में यहां पर पैगंबर मोहम्मद साहब के कार्टून विवाद में एक टीचर का सिर कलमकर हत्या कर दी गई। इस टीचर के खिलाफ ‘फतवा’ जारी किया गया था।

प्रश्न यह है कि इस्लाम में जब चित्र और मूर्ति के अस्तित्व को ही स्वीकार्य नहीं किया जाता है, तब फिर फ्रांस समेत पूरी दुनिया के तमाम देशों में तत्कालीन समय में पैगंबर मोहम्मद साहब के कार्टून पर विरोध क्यों किया गया ? भारत में भी हम सभी ने उस दौरान देश के अनेक स्थलों पर हिंसा, आगजनी और सड़कों पर शांतिपूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए हजारों लोगों को देखा था।

सोशल मीडिया ऐसे प्रश्नों से भरा पड़ा है, जिसमें पूछा जा रहा है कि जब इस्लाम मूर्ति पूजा के विरुद्ध है तब फिर क्यों मुसलमान एक निश्चित दिशा काबा की तरफ मुंह करके नमाज पढ़ते हैं? जबकि मूर्ति, चित्र, संकेत, प्रतीक चिन्ह कहीं न कहीं स्वरूप को ही अभिव्यक्त करते हैं और इस्लाम तो पूरी तरह से स्वरूप के खिलाफ है? इसी प्रकार एक प्रश्न यह भी पूछा जाता है कि ईश्वर यदि निराकार है तो हज करने की आवश्यकता क्यों होनी चाहिए ? उस स्थान पर ईश्वर कैसे है ? उसकी परिक्रमा क्यों करते हैं ? कब्रों को दरगाह और पीरों का स्थान क्यों स्वीकार्य किया जा रहा है और वहां चादर क्यों चढ़ाई जा रही हैं ?

वस्तुत: यहां समझने की जरूरत है कि मुसलमान काबा की ओर मुख कर नमाज क्यों पढ़ते हैं ? इसके मनोविज्ञान को समझने के लिए हमें स्वामी विवेकानन्द के कहे शब्दों को समझना होगा, वे कहते हैं कि एक मनुष्य को मूर्ति या छवि के ज़रिये एक सही राह मिलती है परमात्मा की पूजा करने के लिए। यानी प्रत्येक मनुष्य को साधना, तप, आराधना, लक्ष्य, आत्मिक उन्नति या मन की शांति के लिए किसी न किसी छवि की आवश्यकता होती है और इसलिए उसके लिए अनिवार्य है किसी स्वरूप का होना । तभी संभवतः सुरह बकरा में अल्लाह सुबहान व तआला फरमाते नजर आए –“ऐ रसूल, किबला बदलने के वास्ते बेशक तुम्हारा बार बार आसमान की तरफ़ मंह करना हम देख रहे हैं तो हम जरूर तुमको ऐसे किबले की तरफ फेर देंगे कि तुम निहाल हो जाओ अच्छा तो नमाज ही में तुम मस्जिदे मोहतरम काबे की तरफ मुंह कर लो और ऐ मुसलमानों तुम जहां कहीं भी हो उसी की तरफ अपना मुंह कर लिया करो और जिन लोगों को किताब तौरेत वगैरह दी गई है वह बखूबी जानते हैं कि ये तब्दील किबले बहुत बजा व दुरुस्त हैं और उसके परवरदिगार की तरफ़ से है और जो कुछ वो लोग करते हैं उससे खुदा बेखबर नहीं।” (अल-कुरान 2: 144)

अब आप स्वयं ही विचार कीजिए, आखिर क्यों अल-कुरान में यह कहा गया होगा । एक ओर जहां हिंदू धर्म में पूरे रीति-रिवाज एवं अनुष्ठान के साथ मूर्ति स्थापित की जाती है तत्पश्चात उसकी आराधना की जाती है तो दूसरी ओर वे लोग जिनके मजहब में ही मूर्ति पूजा हराम है, उनकी मस्जिदों की दिशा भी काबा की ओर तय की जाती है जिससे कि प्रत्येक मुस्लिम काबा की ओर देखकर नमाज पढ़े। ऐसे में मूर्ति पूजा को लेकर जो मुसलमान बार-बार प्रश्न खड़े करते हैं उन्हें अवश्य इस विषय पर गंभीरता से सोचना चाहिए। इतना ही नहीं दुनिया में कहीं भी आप चले जाएं, जब किसी मुस्लिम के घर जाते हैं, तब वहां आपको किसी कोने में तस्वीर लगी मिलती है, जिस पर ”अल्लाह” या अंक ”786” लिखा होता है। अल्लाह के नाम ‘बिस्मिल्लाह अल रहमान अल रहीम’ को उर्दू या अरबी में लिखें तो उनके कुल अक्षरों की संख्या 786 होती है। यही वजह है कि मुस्लिम पंथ में कई लोग अल्लाह के नाम ‘बिस्मिल्लाह अल रहमान अल रहीम’ की जगह 786 लिखते हैं। अपने घरों में तस्वीर टांगते हैं। कहीं-कहीं किसी घर में मक्का मदीना में हज करने के स्थान की तस्वीर आपको दिखाई दे जाती है।

वस्तुत: ऐसे में भगवान श्रीगणेश और मां भगवती की मूर्ति स्थापना और आराधना कर रही रूबी आसिफ खान के बारे में विचार करते समय प्रत्येक मुसलमान जो यह मानकर चल रहा है कि इस्लाम मूर्ति या किसी भी स्वरूप से मुक्त पूजा पद्धति है, अवश्य विचार करे कि क्या यह वास्तविकता है? और यदि ऐसा है अथवा नहीं भी है, तब उस स्थिति में भी उन्हें किसी की निजी भावनाओं और उसकी श्रद्धा को आहत करने का कोई अधिकार नहीं। फिर भारत जैसे गणराज्य में तो बिल्कुल नहीं, जहां संविधान का शासन है और देश (राज्य) के लिए उसका प्रत्येक नागरिक जाति, भाषा, पंथ के स्तर पर समान है।

(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार न्यूज एजेंसी की पत्रिका युगवार्ता और नवोत्थान के प्रबंध संपादक एवं राज्य ब्यूरो प्रमुख हैं।)