Friday, September 20"खबर जो असर करे"

ऋषि सुनक के बहाने भारतीय ज्ञान परम्परा की ताजा होती यादें

– डॉ. मयंक चतुर्वेदी

ऋषि सुनक को आज दुनिया जान रही है। वे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री हैं, किंतु भारत में भी शौनक ऋषि हुए हैं, जोकि शुनक ऋषि के पुत्र थे। तत्कालीन समय के वे प्रसिद्ध वैदिक आचार्य थे। शतपथ ब्राह्मण के निर्देशानुसार इनका पूरा नाम इंद्रोतदैवाय शौनक था। ऋषि शौनक दस सहस्त्र शिष्यों के गुरुकुल के कुलपति थे । पुराणों में इनका और सप्त ऋषियों का विस्तृत वर्णन मिलता है । इन्होंने कई अश्वमेध यज्ञ करवाए । इनकी वंश परम्परा को देखें तो सबसे पहले ”प्रमद्वरा को सर्पदंश” नामक कथा महाभारत के अष्टम अध्याय में आदिपर्व के अन्तर्गत पौलोम पर्व में मिलती है। जिसमें कि ऋषि शुनक के कुल-गोत्र के बारे में विस्तार से बताया गया है।

स चापि च्यवनो ब्रह्मन् भार्गवोऽजनयत् सुतम्।
सुकन्यायां महात्मानं प्रमतिं दीप्ततेजसम् ॥
प्रमतिस्तु रुरुं नाम घृताच्यां समजीजनत्।
रुरुः प्रमद्वरायां तु शुनकं समजीजनत् ॥

महर्षि भृगु के पुत्र च्यवन ने अपनी पत्नी सुकन्या के गर्भ से एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रमति था। महात्मा प्रमति बड़े तेजस्वी थे। फिर प्रमति ने घृताची अप्सरा से रुरु नामक पुत्र उत्पन्न किया तथा रुरु के द्वारा प्रमद्वरा के गर्भ से शुनक का जन्म हुआ ॥

शौनकस्तु महाभाग शुनकस्य सुतो भवान्।
शुनकस्तु महासत्त्वः सर्वभार्गवनन्दनः।
जातस्तपसि तीव्रे च स्थितः स्थिरयशास्ततः ॥

शौनकजी, शुनक के ही पुत्र होने के कारण ‘शौनक’ कहलाते हैं। शुनक महान सत्त्व गुण से सम्पन्न तथा सम्पूर्ण भृगुवंश का आनन्द बढ़ाने वाले थे। वे जन्म लेते ही तीव्र तपस्या में संलग्न हो गये। इससे उनका अविचल यश सब ओर फैल गया। वस्तुत: जिस प्रकार का नाम और यश वैदिक काल-उत्तर वैदिक काल में उनकी योग्यता-क्षमता एवं ज्ञान से ऋषि शुनक का सर्वत्र फैला था, आज वैसा ही नाम और यश ब्रिटेन से लेकर संपूर्ण विश्व में आधुनिक ऋषि सुनक का छाया हुआ है।

भारत की प्राचीन ज्ञान परम्परा के साथ गोत्र परम्परा कहती है कि जो आर्य (उत्तम, श्रेष्ठ, पूज्य, मान्य, प्रतिष्ठित, आदर्श, अच्छे ह्रदय वाला, धर्म एवं नियमों के प्रति निष्ठावान, आस्तिक स्त्री -पुरुष)-ब्राह्मण-ब्राह्मणी सरस्वती नदी के तट पर बसे हुए थे, वे आर्य सारस्वत ब्राह्मण कहलाए । आगे समय के साथ यही सारस्वत ब्राह्मण राजस्थान, हरियाणा और अविभाजित पंजाब में बसने के साथ ही भारत के सुदूर दक्षिण से लेकर दुनिया के तमाम देशों में जाकर बस गए । ब्रिटेन में बसे ऋषि सुनक के बारे में यही कहा जा रहा है कि वे इसी वैदिक आचार्य कुल-गोत्र परम्परा के वंशज हैं।

वस्तुतः गोत्र मूल रूप से ब्राह्मणों (पुजारियों) के सात वंश खंडों को संदर्भित करता है, जो सात प्राचीन द्रष्टाओं से अपनी उत्पत्ति का पता लगाते हैं; अत्रि, भारद्वाज, भृगु, गोतम, कश्यप, वशिष्ठ, और विश्वामित्र। दक्षिण भारत में वैदिक हिंदू धर्म के प्रसार के साथ अगस्त्य के नाम पर आठवें गोत्र को आरंभ में जोड़ा गया। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक भृगु गोत्र परम्परा से आते हैं।

कभी-कभी लगता है कि मनुष्य की गोत्र परम्परा को सहेजने की भी कोई व्यवस्था होती। वैसे भारत में पोथी लिखनेवाले वंशावली आचार्य, पुरोहित, पण्डा और शास्त्री इस कार्य को पीढ़ियों से करते आ रहे हैं। किंतु जब दुनिया में इंसान की विविधता देखते हैं तो लगता है कि इसकी कोई वैज्ञानिक व्यवस्था भी बनती । आज के समय को देखते हुए यह इसलिए भी आवश्यक लगता है, क्योंकि विज्ञान सम्मत समाज हर बात का प्रमाण मांगता है, वह भी किसी विशेष पद्धति से सिद्ध किया गया हो, अन्यथा आप सही होते हुए भी गलत ठहरा दिए जाओगे, इसकी संभावना सबसे अधिक रहती है।

जब जीन थ्योरी का अध्ययन करते हैं तो भारतीय मनीषियों और अपनी ऋषि परम्परा के प्रति श्रद्धा से स्वत: मस्तक झुक जाता है। वह इसलिए कि उन्होंने समाज व्यवस्था में एक ऐसा सिस्टम तैयार किया था, जिसमें सभी के विकास की पीढ़ी दर पीढ़ी अपार संभावनाएं निहित हैं। पारिवारिक सदस्यों के आपस में वैवाहिक संबंधों पर रोक, परिवारिक संबंधों में नाम के साथ उक्त संबंधों का उच्चारण, जैसे मामा-मामी, बड़ी मां, छोटी मां, मझली मां, बड़े पिताजी, मझले या छोटे पिताजी (चाचा-चाची), बुआ-फूफा, मौसी-मौसा जैसे संबंधों का बोला जाना और इनसे इतर नए संबंध बनाने के लिए पूरी वैज्ञानिक पद्धति को व्यवहार में लाना ।

यह सिर्फ इसलिए नहीं कि इससे नए संबंध बनाने में सहायता मिलेगी बल्कि इसलिए भी कि इस व्यवस्था से समाज अनेक वंशानुगत बीमारियों से भी मुक्त रहेगा। आनेवाली पीढ़ी पहले से ज्यादा योग्य, तीक्ष्ण बुद्धिशाली, प्रज्ञावान और बलिष्ट होगी। आखिर वर्तमान वैज्ञानिकों के शोध निष्कर्ष एवं जीन थ्योरी भी तो यही कह रही है। जब तक इस ”जीन” शब्द का प्रयोग नहीं हुआ था और लोग इसके बारे में नहीं जानते थे, तब तक दुनिया के तमाम देशों के ही नहीं बल्कि भारत के भीतर भी ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं थी जोकि इस तथ्य की आलोचना करते थे कि क्यों एक परिवार में हिन्दू आपसी विवाह का निषेध करते हैं ? क्यों सगोत्री विवाह नहीं होते? क्यों विवाह के पूर्व नाना-नानी, दादा-दादी इन चार गोत्रों को छोड़कर नए गोत्र में विवाह सम्पन्न कराया जाता है ? लेकिन जब 1909 में वैज्ञानिक जोहानसन ने सर्वप्रथम जीन शब्द का प्रयोग किया और संपूर्ण विश्व को बताया कि जीन्स प्रोटीन तथा न्यूक्लिक अम्ल डीएनए का बना होता है । डीएनए के एक खण्ड को जिसमें आनुवंशिक कूट (जेनेटिक कोड) निहित होता है । जीन्स बेलनाकार छड़ के समान सूक्ष्म इकाइयां हैं, जो गुणसूत्रों के क्रोमोनिमेटा पर रेखित क्रम में स्थित होती हैं।

वैज्ञानिक वाटसन, क्रिक और विल्किन्स के शब्दों में कहें तो यह एक वृहत अणु या कार्बन (सी),एम नाइट्रोजन (एन), हाइड्रोजन (एच), ऑक्सीजन (ओ) तथा फॉस्फोरस (पी) का बना एक बड़ा रासायनिक मूलक है, जो क्रोमोनिमेटा नामक प्रोटीन तन्तु से जुड़ा रहता है तथा बिना किसी संरचनात्मक एवं आकारिकी परिवर्तन के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुँच जाता है। जीन्स जीवों की फिजियोलॉजिकल लक्षणों का निर्धारण करते हैं । प्रत्येक शरीर में ये विशिष्ट लक्षणों वाली क्रियात्मक इकाई हैं। इनमें स्वयं के अनुलिपीकरण करने की क्षमता है। इनमें उत्परिवर्तन भी होता है। यही कारण है कि ये जनकों से संततियों में पीढ़ी दर पीढ़ी पहुंचते हैं। इसलिए यदि आप श्रेष्ठ तपोनिष्ठ संतति चाहते हैं तब उस स्थिति में आपको अपने लिए एक उत्तम गोत्र का चुनाव करना ही होता है। यानी कि परम्परा में जो भी श्रेष्ठ है वह आप अपनी जीन संरचना से स्वतः ही प्राप्त कर लेते हैं।

कहा जाए कि इन आधुनिक वैज्ञानिकों ने अब तक यदि जीन संरचना का पता नहीं लगाया होता तो हो सकता है आज भी इस बात पर भारत समेत दुनिया भर में सामाजिक विज्ञान से जुड़े विद्वान तर्क, वितर्क और कुतर्क कर रहे होते कि क्यों आखिर भारतीय परम्परा में आपसी पारिवारिक रक्त संबंधों को बार-बार विवाह संबंध में नहीं बदला जाता है। जीन से जुड़े तमाम शोध आज यह बता रहे हैं कि भारतीय ज्ञान परम्परा अद्भुत है। भारत की सनातन परम्परा में प्रत्येक नवजात का जन्म उसका परिवारिक परिवेश, वंश व्यवस्था और गोत्रों के आपसी भेद मायने रखते हैं ।

वस्तुतः यही कारण है कि भारत में परम्परा से अपने ऋषि गोत्र को सतत आगे बढ़ाने की अपनी एक व्यवस्था रही है। यहां छह पीढ़ी तक के बालक सपिण्ड कहलाते हैं-अर्थात् छह पीढ़ी ऊपर तक जितने पितृ गोत्र और मातृ गोत्र में पुरुष होंगे वे परस्पर सपिण्ड हैं। सातवीं पीढ़ी पर पहुंच कर मातृवंश की सपिण्डता समाप्त हो जाती है, क्योंकि वैज्ञानिक आधार पर माता के रक्त (रजः) का अंश बालक में छह पीढ़ी तक पहुँचता है ।

इसी प्रकार से पिता के वीर्य (उदक) का साक्षात सम्बन्ध चौदह पीढ़ियों तक का है। उसको ”समानोदक” कहते हैं। अतः पिता के वंश की 14 पीढ़ियां समानोदक कहलाती हैं। इन पीढ़ियों के भीतर के पुरुष-सम्बन्धी, बन्धु-बान्धव सनाभि, सकुल्य आदि नामों से पुकारे जाते हैं। इन सब का व्यापक शब्द परिवार और कुटुम्ब कहा जाता है। अनेक परिवारों के समूह को वंश कहते हैं। अर्थात एक ही वंश में अनेक एक गोत्रीय परिवार रहते हैं। इसी प्रकार अनेक वंशों के समूह को गोत्र कहा जाता है। अर्थात एक गोत्र में अनेक वंश होते हैं, जिनका कि गोत्र समान होता है। ऐसे ही अनेक गोत्रों के समूह एक संघ को ”कुल” कहा जाता है। एक कुल में भिन्न-भिन्न गोत्रों का समावेश हो जाता है।

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक गोत्र से सनातनी हैं। इसलिए यह विश्वास अवश्य ही शक्तिशाली है कि वे न तो ब्रिटेन की बिगड़ी अर्थव्यवस्था से घबराकर पलायन करेंगे और न ही अपने विरोधियों की आलोचनाओं से घबराकर चुप बैठेंगे। उनका भारतीय जीन उनको स्वत: स्फुरित करता रहेगा कि सभी चुनौतियों का सामना कर अंत में सफलता का वे स्वयं वरण करें l वे अपने देश के प्रत्येक नागरिक को यह विश्वास दिलाने में भी सफल रहेंगे कि उनका वर्तमान और भविष्य सही हाथों में है।

(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)