– लालजी जायसवाल
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने पहली बार 27 राज्यों के सभी नगरीय निकायों की माली हालात पर विस्तृत समीक्षा रिपोर्ट जारी की है। साथ ही इनकी खराब वित्तीय स्थिति पर चिंताजनक टिप्पणी की है। यह रिपोर्ट नगर निकायों की वर्ष 2017-18 से लेकर 2019-20 तक के वित्तीय खाते की पड़ताल के बाद 10 नवंबर को जारी की गई है। इसमें साफ किया गया है कि तमाम कोशिशों के बावजूद नगरीय निकाय अपना राजस्व बढ़ाने का कोई ठोस तरीका नहीं निकाल पा रहे हैं। इस रिपोर्ट से इन निकायों के साथ ही राज्य सरकारों को भी सावधान हो जाने की जरूरत है। आने वाले समय में राज्य सरकारों को अपने नगर निकायों की वित्तीय दशा सुधारने को लेकर गंभीरता का परिचय देना होगा, क्योंकि शहर ही विकास के वाहक होते हैं। वास्तविकता में यदि स्थानीय निकायों की स्थिति नहीं सुधरी तो वे समस्याओं से सदैव घिरे रहेंगे। चिंता की बात यह है कि इसके दुष्परिणाम स्वरूप शहरों में रहन-सहन का स्तर तो प्रभावित होगा ही, वे अर्थव्यवस्था को संबल भी प्रदान नहीं कर सकेंगे।
रिजर्व बैंक के अनुसार हमारे नगर निकाय वित्तीय रूप से इतने दुर्बल हैं कि उनका बजट ब्रिक्स देशों के स्थानीय निकायों की तुलना में बहुत कम है। इसका मतलब यह है कि हमारे शहर इस संगठन यानी ब्राजील, रूस, दक्षिण अफ्रीका और चीन के शहरों की तरह प्रगति कर पाने में नाकाम हैं। आखिर जब उनके पास पर्याप्त धन ही नहीं होगा तो वे स्वयं का विकास कैसे कर सकते हैं? भारतीय रिजर्व बैंक ने राजस्व के जिन नए स्त्रोतों की बात की है वह शहरों में रहने वाली आबादी को थोड़ी महंगी पड़ सकती है, क्योंकि इसमें खाली जमीन पर टैक्स लगाने, भवनों के विस्तार या उनके आधुनिकरण को लेकर नई टैक्स व्यवस्था करने, भवनों से ज्यादा जमीन पर टैक्स लगाने, राज्य सरकार की तरफ से वसूली गई स्टांप ड्यूटी में नगर निगमों को ज्यादा हिस्सेदारी देने, नगर निगमों को निजी क्षेत्र के साथ मिल कर साझेदारी कर विकास करने जैसे सुझाव शामिल हैं। लेकिन इससे जनता पर कर का प्रभाव पड़ेगा और उनको महंगाई की मार सहनी पड़ सकती है। इसलिए यहां सोच विचार कर कदम उठाना होगा।
वर्ष 2050 तक देश के नगरों में रहने वाले लोगों की संख्या बहुत ज्यादा हो जाएगी और देश के जीडीपी में भी उनका अहम हिस्सा होगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम स्वयं को उनके समायोजन के लिए तैयार पा रहे हैं? वर्ष 2010 से 2050 के बीच भारत की शहरी आबादी में करीब 50 करोड़ लोगों के और शामिल हो जाने की उम्मीद है। मालूम हो कि वर्ष 2011 में देश की शहरी आबादी करीब 37.7 करोड़ की थी। इसका मतलब यह हुआ कि मौजूदा स्तर पर ही जहां शहरी आवासीय व्यवस्था, बुनियादी सुविधाएं, जलापूर्ति, बिजली, परिवहन आदि की इतनी किल्लत है, वहीं उस वक्त तक इनकी जरूरत बढ़कर दोगुनी से भी अधिक हो जाएगी। ऐसे में मानक में सुधार तथा विस्तार को लेकर कुछ जरूरी सुधारों की अनुमति देना भी पर्याप्त कदम होंगे।
अक्सर कहा जाता है कि प्रभावी शासन की कमी के कारण भारतीय शहरों की स्थिति खराब है। लेकिन इसका उल्टा भी सच है। जैसे भारतीय शहर का डिजाइन और इसके बाद के अराजक विकास और भ्रष्टाचार स्वयं ही त्रुटिपूर्ण शासन का निर्माण करते हैं। गौर करने लायक बात यह है कि नगरीय निकायों की वित्तीय स्थिति कमजोर होने का तथ्य एक ऐसे समय में सामने आया है, जब शहरीकरण के साथ ही शहरों की जनसंख्या भी तेजी से बढ़ रही है। यदि शहरों का बुनियादी ढांचा नहीं सुधरा तो वे आबादी के बढ़ते बोझ को वहन करने में समर्थ नहीं होंगे। लिहाजा इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि कमजोर बुनियादी ढांचे वाले शहर आर्थिक रूप से अपेक्षित प्रगति नहीं कर सकते। यदि देश को आर्थिक रूप से सबल बनाना है तो शहरों के बुनियादी ढांचे को मजबूत करना ही होगा। यह काम तभी संभव है, जब स्थानीय निकाय वित्तीय रूप से सबल हों। चूंकि हमारे छोटे-बड़े शहरों के स्थानीय निकाय लालफीताशाही और भ्रष्टाचार से ग्रस्त हैं, इसलिए वे वैसे बुनियादी ढांचे का निर्माण करने में असमर्थ हैं।
खैर, असल मुद्दा केवल वित्तीय जरूरत ही नहीं है बल्कि विकास और सुधार की बढ़ती चुनौती को लेकर हमारे शहरी प्रशासन और प्रबंधन की तैयारी भी है। वैसे आने वाले समय में भारत में झुग्गी बस्ती जैसे माहौल को बरदाश्त कर पाना आसान नहीं होगा। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए कुछ बड़े बदलावों की आवश्यकता होगी। शहरी भूमि बाजार में आमूलचूल बदलाव लाना होगा ताकि लेनदेन को पारदर्शी बनाया जाए और जमीन का तार्किक इस्तेमाल सुनिश्चित किया जा सके। भवन निर्माण और योजनागत प्रतिबंधों पर नए सिरे से व्यापक पुनर्विचार होना चाहिए ताकि अधिक सुगठित, कम परिवहन वाले और ईंधन की कम खपत वाले शहर विकसित किए जा सकें। इसके अलावा शहरी प्रशासन का विकेंद्रीकरण और सशक्तिकरण भी करना होगा।
गौरतलब है कि शहरी सुधारों में सबसे महत्वपूर्ण तत्व प्रशासन ही है। लेकिन चिंता की बात है कि हमारे शहरी प्रशासन एक तरह से शक्तिहीन हैं और राज्यों की राजधानियों के मंत्रालय ही वित्त, खर्च और योजना से संबंधित सभी प्रमुख फैसले लेते हैं। करीब-करीब वर्ष 2050 तक हमारी जीडीपी का अधिकांश हिस्सा शहरों में पैदा होगा और अगर वे शहर पूरी तरह सशक्त स्थानीय प्रशासन वाले नहीं हुए और उनको योजना और खर्च में पूरी स्वायत्तता नहीं मिली तो यह विकास की राह में सबसे बड़ा बाधा होगा। वैसे प्रभावी शहरी प्रशासन के अनेक घटक हैं। जैसे एक उद्यमिता वाला मेयर होना चाहिए, नागरिकों की आवाज उठाने के लिए स्थानीय समितियां, जमीन के इस्तेमाल के स्वरूप में बदलाव की कवायद में पारदर्शिता हो, अनुबंधों के बारे में खुली सूचना की व्यवस्था भी करना जरूरी होगा।
म्युनिसिपल बॉन्ड से पैसा जुटाना: बॉन्ड एक तरह के क्रेडिट पत्र होते हैं, जिसके तहत आम लोगों या संस्थाओं से पैसे जुटाए जाते हैं। बॉन्ड जारी करने वाली संस्था एक निश्चित समय के लिए रकम उधार लेती है और निश्चित रिटर्न के साथ पैसे वापस करने की गारंटी देती है। ये निवेशकों के लिए निश्चित आय का अच्छा साधन होता है। मालूम हो कि नगर निगम बॉन्ड नगरीय स्थानीय निकायों द्वारा जारी किया जाता हैं। शहर में विकास के कार्य को जारी रखने के लिए बड़े पैमाने पर फंड की जरूरत होती है। सरकार से पैसा लेने की बजाए बॉन्ड से पैसा जुटाना अच्छा विकल्प साबित हो रहा है। पिछले समय में उत्तर प्रदेश सरकार ने लखनऊ म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के बॉन्ड को शेयर बाजार में लिस्ट कराया था।
लखनऊ म्युनिसिपल कॉरपोरेशन बॉन्ड जारी करने वाला उत्तर भारत का पहला नगर निगम है। इस बॉन्ड के माध्यम से जुटाई गई धनराशि को राज्य की राजधानी में विभिन्न बुनियादी ढांचागत योजनाओं में निवेश किया जाएगा। म्युनिसिपल बॉन्ड में निवेश करने पर लॉन्ग टर्म में फिक्स रिटर्न भी मिलता है। शेयर बाजार में लिस्ट होने के बाद इसमें आम लोग एक्सचेंजों के जरिए निवेश भी कर सकते हैं। खास बात तो यह है कि इन बॉन्ड पर निवेशक को मिलने वाला रिटर्न पर आयकर नहीं लगता है। इसकी रेटिंग एजेंसियों से रेटिंग जारी होती है, इसलिए इन्हें सुरक्षित निवेश भी माना जाता है। बहरहाल, अभी तक कुल 11 नगरीय बॉन्ड जारी किए गए हैं, जिनसे करीब 3690 करोड़ रुपये जुटाये गये हैं। लेकिन ध्यातव्य है कि इसके पहले अमरावती, विशाखापत्तनम, अहमदाबाद, सूरत, भोपाल, इंदौर, पुणे, हैदराबाद जैसे शहरों के भी म्युनिसिपल बॉन्ड आ चुके हैं। उल्लेखनीय है कि बीएसई बॉन्ड प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करते हुए लखनऊ नगर निगम ने पिछले समय में इस बॉन्ड के लिए प्राइवेट प्लेसमेंट के जरिये 200 करोड़ रुपये जुटाए थे। इसका मतलब यह है कि बॉन्ड को जनता के लिए जारी करने से पहले ही कुछ बड़ी संस्थाओं से यह रकम जुटा ली गई। लिहाजा, वर्तमान में म्युनिसिपल बॉन्ड नगरीय निकायों के वित्त व्यवस्था का अच्छा माध्यम साबित हो सकता है। लेकिन अभी कुछ विशेष सुधार पर काम करना होगा। शहरीय निकायों के लिए किया गया 74 वें संविधान संशोधन में अभी और सुधार अपेक्षित है। लिहाजा नगरीय निकायों को और अधिक शक्तिशाली बनाना होगा। इससे होगा यह कि उनकी निर्भरता दूसरों पर से कम होगी और आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ेगी। आत्मनिर्भरता से आर्थिक समृद्धि आएगी और विकास की राह भी खुलेगी।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)