Friday, November 22"खबर जो असर करे"

रेवड़ी की मिठास पर सियासत की खटास

– सियाराम पांडेय ‘शांत’

रेवड़ी की अपनी मिठास होती है। इसकी मिठास और स्वाद के रसिक भारत ही नहीं, अपितु पूरी दुनिया में हैं। लखनऊ में 30 करोड़ रुपये की रेवड़ी हर माह बिकती रही है। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने तो लखनवी गजक के लिए अपना हेलीकाप्टर तक रुकवा दिया था। रोहतक में भी रेवड़ी का सालाना कारोबार डेढ़ लाख करोड़ रुपये का है। पाकिस्तानी भी इसके दीवाने हैं। अपने परिचितों के जरिए वे लखनऊ और रोहतक की रेवड़ी मंगाते रहते हैं लेकिन कोरोना की भारी मार के बाद अब तो रेवड़ी शब्द भी असंसदीय हो गया है। आपत्तिजनक हो गया है। सियासी कठघरे में खड़ा हो गया है।

हालांकि अंधे की रेवड़ी वाला मुहावरा इस देश में बहुत पहले से चला आ रहा है लेकिन इस पर आपत्ति कभी नहीं हुई। इसे दिव्यांगों के अपमान के तौर पर भी नहीं देखा गया। देखा भी गया हो तो इसे कोई खास तवज्जो नहीं दी गई। तवज्जो तभी मिलती है जब नेता उस पर बोलते हैं। हाल ही में संसद में कुछ आपत्तिजनक शब्दों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया गया है। इस पर भी राजनीति हो रही है। राजनीतिक दलों की आपत्ति भी सुविधा का संतुलन देखकर होती है। वैसे भी बोलते वक्त राजनीतिक दलों की जुबान फिसलती रही है। ऐसा सायास होता है या जान-बूझकर, इसे तो नेता ही बेहतर बता सकते हैं लेकिन उनके बोल इस देश की कानून-व्यवस्था और शांति-सौहार्द्र पर भारी पड़ते हैं। इससे सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की लय टूटती है। वाणी की अपनी ताकत होती है। इसका विचार तो हर वक्ता को करना ही चाहिए। जो कुछ भी कहा जाए, अगर उसे हृदय के तराजू पर तौल लिया जाए तो फसाद के हालात ही न बनें।

राजतंत्र में राजा को प्रजापालक कहा जाता था। वह नैतिक रूप से खुद को राज्य का अभिभावक मानता था और हमेशा इस बात के लिए सचेष्ट रहता था कि भूल से भी उससे कोई गलती न हो जाए जिससे प्रजाजन के जीवन में कोई कष्ट आए। वह प्रजा से कर भी लेता था तो इतना जितना बादल समुद्र से जल लेता है। इसके पीछे उद्देश्य यह था कि प्रजा को कर देते वक्त परेशानी न हो लेकिन लगता है कि लोकतंत्र में यह भाव तिरोहित हो गया है। लोकतंत्र में सत्ता शीर्ष पर बैठे व्यक्ति चाहे वे किसी भी दल के क्यों न हो, जनता से लेते तो मन भर हैं लेकिन देते छटांक भर हैं लेकिन उसे बताते कुछ इस तरह हैं जैसे व्यवस्था का गोवर्धन उन्हीं की अंगुलियों पर टिका है।

वोट के लिए लोगों को मुफ्त में सुविधाएं मुहैया कराने की सियासत कितनी सही है, कितनी गलत, यह बहस-मुबाहिसे का विषय हो सकता है लेकिन इसकी कीमत अंतत: देश को ही उठानी पड़ती है। इस बात को समझना ही होगा। प्रधानमंत्री अनेक अवसर पर कह चुके हैं कि शार्ट कट की राजनीति देश में तबाही का सबब बन सकती है और अब एक बार फिर उन्होंने बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे के लोकार्पण अवसर पर कहा है कि रेवड़ी कल्चर देश के विकास के लिए बहुत घातक है। देश की वर्तमान आकांक्षाओं और बेहतर भविष्य को प्रभावित करने वाले काम नही किए जाने चाहिए। देश के विकास को गति देने वाले निर्णय ही लिए जाने चाहिए। देश के विकास पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाली चीजों को दूर रखा जाना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि देश के पास विकास का बहुत सुंदर अवसर है और उसे हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। इस दौर में हमें अधिकतम विकास सुनिश्चित करना चाहिए और देश को नई ऊंचाइयों पर ले जाकर नये भारत का निर्माण करना चाहिए।

नए भारत की चुनौतियों को अगर अभी नजरअंदाज किया जाएगा तो देश का वर्तमान बर्बाद हो जाएगा और भविष्य अंधकार में डूब जाएगा। उन्होंने सतर्क किया कि आज देश में रेवड़ियां बांट कर वोट जुटाने की संस्कृति जड़ जमा रही है। यह रेवड़ी कल्चर देश के विकास के लिए बहुत घातक है। देश के लोगों खासतौर से युवाओं को इस संस्कृति के खिलाफ सतर्क रहना चाहिए। उनका मानना है कि रेवड़ी कल्चर वाले लोग न तो नए एक्सप्रेस-वे बना सकते हैं, न नए हवाई अड्डे या डिफेंस कॉरिडोर विकसित कर सकते हैं। उन्होंने जनता को खरीदने की सोच रखने वालों को देश की राजनीति से हटाने की अपील भी की है। यह और बात है कि राजनीतिक दलों ने इसका प्रतिवाद भी किया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि हम मुफ्त की रेवड़ी नहीं बांट रहे हैं, बल्कि मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा देकर देश की नींव रख रहे हैं। मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा मुफ्त सौगात नहीं, दोस्तों का कर्ज माफ करना मुफ्त की रेवड़ी है।

राधेश्याम रामायण में परशुरामजी भगवान राम से कहते हैं कि जब तू ही अगुवा बनता है, इस राजा दल की गाड़ी में तो मसल याद वह आती है तृण छिपा चोर की दाढ़ी में। प्रधानमंत्री मोदी विकास पथ पर चलने के दर्द इरादे की ही बात नही कर रहे,वे मर्यादा की भी बात कर रहे हैं। वे नई सुविधाओं के माध्यम से देश का भविष्य भी बनाने की बात कर रहे हैं। सपा प्रमुख अखिलेश यादव बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे के उद्घाटन को आधा अधूरा बता रहे हैं। रेवड़ी संस्कृति के जवाब में उन्होंने मोदी और योगी सरकार पर आधे-अधूरे बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे के उद्घाटन में हड़बड़ी दिखाने और चलताऊ संस्कृति का समर्थन करने का आरोप लगाया।

भारत के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एनवी रमण भी इस बात को महसूस करते हैं कि राजनीतिक विरोध का शत्रुता में बदलना स्वस्थ लोकतंत्र का संकेत नहीं है। उनका मानना है कि कभी सरकार और विपक्ष के बीच जो परस्पर सम्मान भाव हुआ करता था, वह अब घट रहा है। सवाल यह है कि इसके पीछे कौन से कारक जिम्मेदार हैं । उसे तलाशना होगा। सत्ता पक्ष ही जनसेवा कर सकता है, यह भाव ठीक नहीं है। सरकार की जिम्मेदारी है कि वह बुनियादी सुविधाएं लोगों को मुहैया कराए। सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य और कल-कारखानों की व्यवस्था कराए और इसके लिए विपक्षी दलों को भी विश्वास में ले। यह देश सबका है और इसके विकास में सबकी समान भूमिका है। जब कोई कार्य का ज्यादा ही श्रेय लेने लगता है तो संघर्ष की व्युत्पत्ति होती है। भारत में एक कहावत नेकी कर दरिया में डालने की रही है। इस बात को सभी राजनीतिक दलों को समझना चाहिए। विकास हम ही कर सकते हैं,यह भाव ठीक नहीं है बल्कि होना तो यह चाहिए कि हम अपनी जिम्मेदारी को ठीक से निभाएं। विधायिका, कार्यपालिका और न्याय पालिका में परस्पर समन्वय की जरूरत है और ऐसा परस्पर खींचतान से संभव नहीं है।

चुनाव पूर्व सुविधाओं की मुफ्त रेवड़ी बांटने में कोई भी दल किसी से कम नहीं है। इससे लाभार्थियों में काम के प्रति रुचि घटती है। जब बिना कुछ किए जरूरतें पूरी हो जाएं तो काम भला कौन करना चाहेगा। और जिस देश की नागरिक आबादी सरकारी अनुदानों पर आश्रित हो जाएगी, वह देश तरक्की कैसे करेगा? इसलिए राजनीतिक दलों को आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से हटकर सोचना होगा कि वे देश को कामचोर बना रहे हैं या आत्मनिर्भर। देश विकसित तब होता है जब हर हाथ काम करे।अब धोती वाला कमाए और टोपी वाला खाए का सिद्धान्त नहीं चलेगा। मौजूदा समय नए सिरे से सोचने और जो जहां है,उसे वहीं रोजगार से जोड़ने का है, तभी बात बनेगी। सुविधाएं सहायक हो सकती हैं लेकिन आत्मनिर्भरता तो खुद ही लानी होगी। केवल नवोन्मेष से काम नहीं चलेगा, उस पर अमल भी करना होगा। इसके लिए ठोस रणनीति बनानी होगी। हर आदमी की आय के अनेक विकल्प तलाशने होंगे। व्यक्ति को उसके श्रम का सही मूल्य मिले, इस दिशा में काम करना होगा। कोई किसी के मार्ग में रोड़ा न बने, यह सुनिश्चित करना होगा। रेवड़ी को रेवड़ी ही रहने दिया जाए। उसकी मिठास में राजनीति की खटास न घोली जाए। यही मौजूदा समय की मांग भी है। दिव्यांग को दिखता नहीं, इसलिए वह पहचानकर रेवड़ी बांटता है। उसमें पक्षपात की गुंजाइश नहीं रहती लेकिन आंख वाले पढ़े लिखे लोग जब सत्ता और सुविधाओं की रेवड़ी बांटते हैं तो अक्सर उनकी निष्पक्षता व तटस्थता पर सवाल उठते हैं। यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है। इसका परिमार्जन किए बगैर कोई देश की प्रगति की कामना करे भी तो किस तरह?

(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से सम्बद्ध हैं।)