– राकेश दुबे
हमारे देश में ‘तिरंगा यात्रा’ की धूम मची है। राष्ट्रध्वज ‘तिरंगा’ अभी से घर-घर और हाथों में लहरा रहा है। दूसरी ओर कुछ ‘देशद्रोही’ आवाजें उठ रही हैं कि भारत में भी बांग्लादेश जैसे हालात पैदा हो सकते हैं! आंदोलन और बगावत की नौबत आ सकती है! मणिशंकर अय्यर और सलमान खुर्शीद सरीखे नेताओं ने दोनों देशों की परिस्थितियों की तुलना की है कि दोनों की राय में देश में युवा असंतोष, आक्रोश चरम पर हैं। उनके अनुसार बेरोजगारी बहुत है। तीन दिन के बाद हम देश का ‘स्वतंत्रता दिवस’ मनाएंगे। आजादी को 77 साल बीत जाएंगे, इस विरोधाभासी तुलना के बाद भारत का लोकतंत्र और उसकी संप्रभुता जन्म से यथावत है।
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री रहीं शेख हसीना ‘तानाशाही फितरत’ की थीं। उन्होंने विपक्ष का पूरी तरह दमन कर दिया था। भारत में भी कुछ लोग प्रधानमंत्री मोदी को ‘तानाशाह’ करार देते हैं। आरोप लगाते है की उन्होंने भी विपक्षी नेताओं के पीछे सरकारी एजेंसियां लगा रखी हैं। विपक्षी नेताओं को जेल में डाला जा रहा है। इन स्थितियों के मद्देनजर भारत में भी आंदोलनात्मक उफान आने का उन्हें अंदेशा है। दुर्भाग्य है कि अय्यर और खुर्शीद भारत सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं।
पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान ने यह बयान सार्वजनिक मंच से दिया है कि मोदी जी शेख हसीना की सलाह ले लें कि देश छोड़ कर कैसे भागना है? ऐसे बयान संवैधानिक मर्यादा और गरिमा का घोर अतिक्रमण है, क्योंकि देश के मौजूदा प्रधानमंत्री के खिलाफ ऐसे भाव सिर्फ राजनीतिवश व्यक्त किए जा रहे हैं। एक और उदाहरण गौरतलब है कि लोकसभा में वक्फ बोर्ड संशोधन बिल पर चर्चा के दौरान सपा सांसद मौलाना मोहिबुल्ला ने धमकी भरे लहजे में कहा कि कहीं ऐसा न हो कि मुसलमान सड़कों पर उतर आएं! यह घोर असंसदीय टिप्पणी है, जिस पर स्पीकर ओम बिरला को तुरंत आपत्ति जतानी चाहिए थी और सत्ता पक्ष को भी विरोध दर्ज कराना चाहिए था। ऐसे ही बयानों के आधार पर मुसलमानों को भड़काने, सुलगाने की कोशिशें जारी हैं। उन्हें तुरंत कुचल देना चाहिए।
कुछ राजनीतिक दल भी ‘भारत में मुस्लिम बगावत’ का समर्थन कर रहे हैं, क्योंकि मुसलमान उनके वोट बैंक हैं। वे सभी मुगालते में हैं कि मोदी सरकार को इसी तरह ध्वस्त किया जा सकता है, लिहाजा वक्फ के नए नेरेटिव के आधार पर वे मुसलमानों को भड़का, उकसा रहे हैं। सोशल मीडिया पर कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे फर्जी विचारकों ने भी भारत में ‘अपशकुनी आशंकाओं’ के प्रलाप जारी रखे हैं। इस तरह एक व्यापक मजहबी, सियासी, सामाजिक और वैचारिक षड्यंत्र रचा जा रहा है, 15 अगस्त 1947 के पूर्व के संघर्ष को याद कीजिए । हमारा भारत आत्मा से लोकतांत्रिक देश है। तख्तापलट या राष्ट्रध्यक्षों, प्रधानमंत्रियों की हत्या करने के संस्कार हम भारतीयों के नहीं हैं। आंदोलन भारत में भी होते रहे हैं, क्योंकि यह संवैधानिक मौलिक अधिकार है, लेकिन आंदोलन भारत-विरोधी नहीं होते।
भारत में भी राजनीतिक अस्थिरता के दौर रहे हैं, क्योंकि 1970 के दशक के बाद ‘त्रिशंकु जनादेश’ दिए गए हैं, लिहाजा बाहरी समर्थन से अथवा गठबंधन के आधार पर सरकारें बनी हैं। चौ. चरण सिंह, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल सरीखे प्रधानमंत्रियों ने ऐसी आधी-अधूरी सरकारें चलाई हैं, लेकिन उनके खिलाफ बगावती उपद्रव कभी नहीं मचे। मार-काट अथवा प्रधानमंत्री के इस्तीफे या सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीशों को जबरन पद छोड़ने को विवश कभी नहीं किया गया, क्योंकि भारत आत्मा से, समग्रता में, लोकतांत्रिक देश है। हर बार लोकतंत्र का पालन किया जाता रहा है, बेशक चुनावी जनादेश कैसा भी हो।
बांग्लादेश में तो दिखावटी लोकतंत्र रहा है। देश के तौर पर अस्तित्व में आने के मात्र चार साल बाद ही वहां के राष्ट्रपिता एवं तत्कालीन राष्ट्रपति शेख मुजीब की, उनके 18 परिजनों के साथ ही, हत्या कर दी गई थी। शेख हसीना तब जर्मनी में अपने पति के साथ थी, लिहाजा बच गई। यह कौन-सा लोकतंत्र है। भारत की सेना का चरित्र भी ‘तख्तापलट’ का नहीं रहा है। वह देश-विरोधी ताकतों को जवाब दे सकती है। तय मानिए कि यह देश बांग्लादेश नहीं हो सकता।
(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं।)