Friday, November 22"खबर जो असर करे"

सुरंग मेकिंग तकनीक पर विफलता की जिम्मेदारी तय हो

– डॉ. रमेश ठाकुर

अब समय आ गया है कि सुरंग मेकिंग तकनीक विफलता की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। हुकूमतें इस बात को बेशक न मानें, पर टनल इंजीनियरिंग, अंडरपिनिंग व टनलिंग विधि में भारतीय व्यवस्था अब भी काफी पिछड़ी है। पहाड़ों को फाड़कर उनके भीतर टनल (सुरंग) बनाने का अनुभव नहीं है। हालांकि सॉफ्ट-ग्राउंड क्षेत्र में टनल, सब-वे व सीवर बनाने की विधि में हमारी तकनीक कारगर और मजबूत हैं। पहाड़ी दुगर्म क्षेत्रों को तहस-नहस करके उनमें विशालकाय सुरंगें बनाने के लिए आधुनिक तामझाम, टेक्नोलॉजी व उपयुक्त सिस्टम नहीं हैं। यही बड़ा कारण है कि पहाड़ों में बड़े प्रोजेक्ट कामयाब नहीं हो रहे। वहां, इस तरह की परियोजनाओं के विफल होने के पीछे पर्यावरण प्रकोप भी मुख्य वजह है। उत्तराखंड़ में बीते दशक भर में घटी तमाम दर्दनाक घटनाएं इसका ताजा उदाहरण हैं। उन्हीं में यह मौजूदा सुरंग की घटना भी शामिल है, जहां, ब्रह्मखाल-यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर पहाड़ों का सीना चीरकर सिल्क्यारा और डंडालगांव के बीच लगभग पांच किलोमीटर लंबी सुरंग बन रही थी। सुरंग तो नहीं बनी, लेकिन चालीस जिंदगी मौत से जरूर लड़ रही हैं।

निश्चित रूप से यह घटना रोंगटे खड़े करती है। समय जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है, धड़कने तेज हो रही हैं। सुरंग के आसपास के डरावने सन्नाटे से बाकी मजदूर कैसे मुक्त हों? इसकी उम्मीद भी मुकम्मल तौर पर कोई नहीं बंधवाता। 12 तारीख से लेकर अभी तक स्थिति गंभीर बनी हुई है। उम्मीद की किरणें हर पल धूमिल होती दिख रही हैं। हालांकि शासन-प्रशासन का रेस्क्यू अभियान मुस्तैदी से जुटा है। घटनास्थल पर पहुंचकर मजदूरों के परिजन चीख-चिल्ला, रो-बिलख रहे हैं और सिस्टम को ललकार रहे हैं। सुरंग को ‘मौत की सुरंग’ बोलकर ईश्वर से हाथ फैलाकर उनके लिए सलामती की दुआ कर रहे हैं। वैसे, दुआएं उनके परिजन क्या, बल्कि समूचा भारत कर रहा है। मजदूर सुरंग के भीतर किस हाल में होंगे, ये तो सिर्फ वही जानते होंगे? घुप्प अंधेरे में मंडराती बिन बुलाई मौत उनके सामने दस्तक देकर खड़ी होगी, जिसे वो भयभीत होकर निहार रहे होंगे। उस दृश्य की कल्पना मात्र से भी कलेजा कंपकपाता है।

बहरहाल, एक उम्मीद बंधी है कि अमेरिकी से कोई आधुनिक ड्रिल मशीन मंगवाई गई है जिसके जरिए मजदूरों को बाहर निकालने की कोशिश जारी हैं। ड्रिल मशीन के जरिए सुरंग के बाजू में एक गड्ढा करके उसमें पाइप डाला जाएगा। इसके सहारे अंदर फंसे मजदूरों को बाहर निकाला जाएगा। यह अमेरिकी ड्रिल मशीन बहुत तेज स्पीड से टनल काटती है। इसके अलावा थाईलैंड से भी मशीनें मंगवाई गई हैं जो इस रेस्क्यू अभियान में भारतीय सेना की मदद करेगी। लेकिन यह घटना कई सवाल खड़े करती है। उत्तराखंड में कई सरकारी प्रोजेक्ट विफल हुए और बड़े हादसों में तब्दील हुए। इशारा साफ है कि मानवीय हिमाकतों का खामियाजा कुदरत ने तुरंत दिया। केदारनाथ पॉवर प्रोजेक्ट, उत्तरकाशी थर्मल प्लांट, बद्रीनाथ आदि में हुए हादसे संकेत ही तो देते हैं कि पहाड़ों को मत छेड़ो? अगर छेड़ोगे तो उसका अंजाम बुरा होगा? बुरा हो भी रहा है। फिर भी कुदरत से मुकाबले करने के लिए इंसान आगे खड़े हैं। खुदा न खास्ता सुरंग में फंसे इन 40 मजदूरों के साथ कोई अनहोनी हो जाती है, तो उसकी भरपाई कौन करेगा। सुरंग ढहने के खिलाफ कानूनी सुरक्षा के लिए सतह प्रक्रिया भी कोई तय नहीं है, जिससे हताहतों के परिजन कानूनी लड़ाई लड़कर न्याय पा सकें।

कहा जाता है कि विनाश की उत्पत्ति विकास से ही होती है। विकास के लिए हम इतने अंधे हुए पड़े हैं कि पर्यावरण की रक्षा करना ही भूल गए। प्राकृतिक संरचनाएं मानव या उनके द्वारा निर्मित मशीनों को कतई इजाजत नहीं देतीं कि उनका सीना वो बिलावजह चीरें? ये बात सौ आने सच है कि विकास के लिए हम पर्यावरण के नियंत्रण को पूरी तरह भूल गए हैं। एक कड़वी सच्चाई से इंजीनियर पूरी तरह वाकिफ होते हुए भी मौन रहते हैं? उन्हें पता होता है कि मैदानी क्षेत्र सुरंग बनाने में मदद करते हैं, लेकिन पहाड़ी क्षेत्र बिल्कुल नहीं? बावजूद इसके पहाड़ों का दोहन करने से बाज नहीं आते? मैदानी क्षेत्रों में जब सुरंगों का निर्माण होता है तो उसमें ताजी हवा प्रदान करने और मीथेन जैसी विस्फोटक गैसों और ब्लास्ट धुएं सहित हानिकारक गैसों को हटाने के लिए वेंटिलेशन महत्वपूर्ण होता है। जबकि, निकास स्क्रबर के साथ भूमिगत उपयोग के लिए केवल कम धुएं वाले विस्फोटकों का चयन करने से भी समस्याएं कम होती है, लंबी सुरंगों में एक प्रमुख हवादार संयंत्र शामिल होता है जो तीन फीट व्यास तक के हल्के पाइपों के माध्यम से और बूस्टर प्रशंसकों के साथ एक मजबूर ड्राफ्ट को नियोजित करता है। इन सभी तकनीकों को नहीं अपनाया जाता।

उच्च स्तर ड्रिलिंग उपकरण द्वारा हेडिंग पर और वेंट लाइनों में उच्च-वेग हवा द्वारा पूरे सुरंग में उत्पन्न शोर को अकसर संचार के लिए सांकेतिक भाषा के साथ ईयर प्लग के उपयोग की आवश्यकता होती है। सुरंगों में इलेक्ट्रॉनिक उपकरण निषिद्ध होते हैं, क्योंकि आवारा धाराएं ब्लास्टिंग सर्किट को सक्रिय करती हैं। पहाड़ी सुरंगों में तेज धमक से तूफानी धाराओं का भी उठने का डर रहता है। ऐसे में विशेष सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है। विदेश में जब किसी बड़ी टनल का निर्माण होता है तो उससे पूर्व भू-वैज्ञानिक जांच करवाई जाती है। विभिन्न स्थानों के सापेक्ष और जोखिम वाले क्षेत्रों का गहन भू-गार्भिक विश्लेषण होता है। अफसोस इस तरह की कोई विधि हमारे यहां नहीं अपनाई जाती। हमारे इंजीनियर पर्वतीय क्षेत्रों के मिजाज को समझने में भूल करते हैं। विकसित वेल-लॉगिंग और भू-भौतिकीय तकनीक को प्रॉपर तरीके से नहीं अपनाते। नतीजा ऐसे हादसे होते हैं। फिलहाल यह घटना किसी दर्दनाक हादसे में तब्दील न हो, सभी मजदूर सुरक्षित सुरंग से बाहर निकलें, इसके लिए हर जरूरी प्रयास किए जाने चाहिए।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)