Friday, November 22"खबर जो असर करे"

बहुत याद आते हैं सर्कस के बब्बर शेर

– के. विक्रम राव

तब तक टीवी ने हम लोगों की शाम को बख्श दिया था। ईजाद ही नहीं हुआ था। मोबाइल ने दिनरात हड़पे नहीं थे। वह भी नहीं बना था। उस दौर में वक्त खुद प्रतीक्षा करता था। शहर में सर्कस लगने की खबर आते ही, आग जैसी फैलती थी। परिवारों में तो खासकर। मगर अब सर्कस में चौपायों में केवल घोड़े ही बचे हैं। ढाई सदी बीते दुनिया का सर्वप्रथम सर्कस चार अप्रैल 1768 के दिन ही आया था। लंदन में फिलिप और उनकी पत्नी पैट्सी ने घुड़सवारी के करतब दिखाकर सर्कस की नींव डाली थी। इस छह फुटे फौजी अश्वारोही ने ही करिश्मायी शो आयोजित किया। वही बाद में विकसित होकर मनोरंजन में नया आयाम लाया। फिर अन्य चौपाये सर्कस में शरीक हुए। खासकर शेर बब्बर, बाघ, रीछ, हाथी इत्यादि। मगर पशुओं के प्रति क्रूरता वाला कानून संसद द्वारा बनते ही, सब बंद हो गया। फीका पड़ गया।

लखनऊ की एक लोमहर्षक वारदात चिरस्मरणीय रहती है। पचास साल बीते। दयानिधान पार्क (लालबाग, नावेल्टी थ्येटर के ठीक सामने) में सर्कस के तंबू गड़ा करते थे। एक दफा (1974) का किस्सा है, दैनिक “नवजीवन” के चीफ रिपोर्टर साथी हसीब सिद्दीकी की जुबानी। उनके न्यूज एडिटर सुरेश मिश्र आधी रात नगर संस्करण में अंतिम खबर भेजकर, आदतन नजीराबाद के अब्दुल्लाह होटल के लिए रवाना हुए। हजरतगंज के काफी हाउस से कई सालों पूर्व ही यह होटल दानिश्वरों जमावड़े के लिए मशहूर था। खासकर दूध की मोटी परतवाली मलाई के खातिर। सुरेश मिश्र वहां पहुंचे ही थे कि फुटपाथ पर सोने वालों की भगदड़ मच गई थी। पता चला था कि लालबाग पार्क में लगे सर्कस का एक शेर पिंजरे से निकलकर अमीनाबाद की सैर कर रहा था। वह एक सुशुप्त श्रमिक का मुंह चाटने लगा। नींद टूटने से नाराज श्रमिक आक्रोशित था। शेर पर हथेली चलाई। फिर उसे देखकर उसके होश उड़ गए। भागा। इस पूरे हादसे को सुनकर सुरेश मिश्र जी ने सर्वप्रथम दफ्तर फोन किया कि संस्करण देर से छपेगा। फिर स्वयं आकर पूरी खबर लिखी। इससे लखनऊ में जबरदस्त सनसनी फैली। “नवजीवन” एकमात्र दैनिक था जिसमें यह समाचार छपा था। दाद दी गई इस समाचारपत्र संपादक को कि ऐसी विलक्षण खबर चलाई। स्वाभाविक है कि बाकी अखबारों की प्रातःकालीन बैठक मे संपादकों ने रिपोर्टरों का कोर्ट मार्शल किया। इतनी बड़ी खबर ? भीड़भरे मार्केट में शेर का टहलना ! कैसे छूट गई ? मगर हम सब सुरेश मिश्र की कसीदे गाते हैं।

मिलता-जुलता एक हादसा हुआ था इसी दयानिधान पार्क में 1950 में भी। उस दिन भी एक सर्कस में शेरों का शो हो रहा था। अकस्मात एक शेर रिंग मास्टर पर लपका और उसे घायल कर दिया। कुछ देर के लिए तो कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया। सारे स्थानीय संवाददाता कार्यालय की ओर लपके। खबर शाया करने। मगर मेरे बड़े भ्राता स्वर्गीय श्री के. प्रताप राव सर्कस के अगले शो तक रुके रहे। तब वे “हिंदुस्तान टाइम्स” के यूपी संवाददाता थे। उनका कार्यालय हजरतगंज में हलवासिया मार्केट के ठीक सामने पहली मंजिल पर जगदीश भवन में था। बगल में मकबरे का फाटक है। उन्होंने अगले शो में देखा कि वही घायल रिंग मास्टर फिर शेरों का शो पेश करता है? शो सफलता से पूरा हुआ। उस हमलावर शेर की कचूमर निकलने तक मारा।

फिर दर्शकों की करतल ध्वनि के बीच शो का अंत हुआ। दफ्तर आकर मेरे भाई साहब ने रपट भेजी। खासकर रिंग मास्टर की फोटो तथा बहादुरी वाली कि घायल होकर भी शेरों का शो दोबारा दर्शाया। रोका नहीं। अगले दिन लखनऊ के दैनिकों के संपादकों ने सवाल किए अपने रिपोर्टरों से कि ऐसा बेहतर मानवीय पहलू क्यों नहीं लिखा ? तब “हिंदुस्तान टाइम्स” दिल्ली से ही छपता था। हवाई जहाज से लखनऊ भेजा जाता था। संपादक देवदास गांधी (महात्माजी के पुत्र) ने प्रताप भाई साहब को बधाई दी थी। बाद में पत्रकारिता छोडकर बड़े भाई भारतीय विदेश सेवा में चयनित हुए। फ्रांसीसी उपनिवेश रहे ट्यूनीशिया में राजदूत थे। रिटायर होकर अमेरिका में बसे।

शेर का उत्कृष्टतम मानवीय प्रसंग है रोम (इटली) का। काफी मशहूर है। वहां एक यूनानी दर्जी एंड्रोक्लियस को गुस्सैल रोमन सम्राट ने शेर के साथ कोलोसियम स्टेडियम में फेंक दिया। मगर भूखे शेर ने उस आदमी को खाया नहीं। आश्चर्यचकित सम्राट को कैदी एंड्रोक्लियस ने बताया कि जंगल में एक बार कांटा चुभने से एक शेर कराह रहा था। तब इसी व्यक्ति ने कांटा निकाला था। यह वही शेर है। अनुग्रहीत था। अतः उसे मारा नहीं। अर्थात पशु में भी कृतज्ञता की भावना होती है। एकदफा रोम में हुए अपने वैश्विक पत्रकार अधिवेशन में सपरिवार मैं गया था। तो अपनी पत्नी डॉ. सुधा, पुत्री विनीता, पुत्र सुदेव और पत्रकार-पुत्र विश्वदेव (विशु) को कालोसियम के खंडहर दिखाने ले गया था। पशु द्वारा एहसान चुकाने वाला पाठ उन्हें सुनाया।

शेरों से जुड़े कई मुहावरे सुने और पढ़े। उपाधि और अलंकार के रूप में भी “शेर” शब्द प्रयुक्त होते हैं। उन्हें पढ़ा। मसलन पंजाब केसरी लाला लाजपतराय, आंध्र केसरी टी. प्रकाशम, बिहार केसरी बाबू श्रीकृष्ण सिन्हा आदि। कई नाम भी सुने। जैसे शेर सिंह, नाहर सिंह, केहर सिंह, केसरी सिंह, शार्दूल सिंह, वनराज सिंह, मृगेंद्र सिंह आदि। मगर ये सब “डबल शेर” असली बब्बर शेर का कितना शौर्य तथा कृतज्ञता भाव लिए हुए हैं ? वे सब मात्र नाम के हैं अथवा भाव से भी ?

(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं।)