– आर.के. सिन्हा
भारत के जांबाज सैनिकों ने पिछली 09 दिसंबर को चीन के गले में अंगूठा डाल दिया था। बात-बात पर धौंस जमाने वाले चीन को गलवान के बाद भारत ने तवांग में उसकी कायदे से अपनी औकात समझा दी। भारतीय सैनिकों ने चीनियों की कसकर भरपूर धुनाई की। लेकिन तवांग में चीन ने जो कुछ देखा वो तो महज एक झांकी है। जरूरत पड़ी तो भारत कसकर चीन को कसने के लिए तैयार है। पर यह कहना होगा कि भारत और चीन के बीच की जंग दुनिया की सबसे कठिन जंग होगी। दोनों देशों ने आपस में समझौता कर रखा है कि बंदूक तो बंदूक कोई तलवार तक नहीं निकालेगा म्यान से। हां गदा युद्ध हो सकता है। मल्ल युद्ध हो सकता है। 1967 में में नाथूला की जंग में चीन के चार सौ से अधिक सैनिक मारे गए थे तब से चीन बंदूकबाजी से डरता है और भारत तो हमेशा से उदारमना है ही। गौतम बुद्ध और गांधी का देश भारत तो किसी से खुद तो पंगा लेता ही नहीं है। दूसरी तरफ मैकमोहन रेखा को चीन स्वीकार नहीं करता है। वैसे भी 1962 के बाद से चीन मैकमोहन रेखा के इस पार ही डटा हुआ है। अब तक लाइन ऑफ कंट्रोल (एलएसी), जिसे वास्तविक नियंत्रण रेखा भी कहते हैं, पर भी सहमति नहीं बन पाई है। एलएसी का मतलब ही है वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी जो जब जहां नियंत्रण कर ले।
अब भारत क्या करे? भारत ने भी गलवान की घटना के बाद नुकीली गदा बना ली हैं। चीनी कंटीले तार वाले डंडे लेकर आते है और भारतीय लंबी गदा। दुर्योधन और भीम की तरह युद्ध होता है। फिर बाकायदा फ्री स्टाइल कुश्ती भी होती है। भारत ने अपने लंबे तगड़े जाट, सिख और राजपूत लगा रखे हैं जो मल्ल युद्ध में चीनियों को फुटबॉल बना देते हैं। कभी-कभी पत्थरबाजी भी होती है। यह पाषाणकालीन युद्ध का एक आधुनिक नमूना है। अब मीडिया तमाम मिसाइलें और राफेल की एक्सरसाइज दिखा रहा है, जिनका कोई मतलब नहीं है सिवाय नागरिकों का मनोबल ऊंचा करने के। जब गोली नहीं चला सकते तो मिसाइल कौन चलाएगा।
तो मानकर चलिए अभी भारत-चीन के बीच सरहद पर शांति की उम्मीद तो एक दूर की ही संभावना है। इसी तरह से सीमा विवाद भी हल होने में न जाने कितने साल या दशक लग जाएं। चीन हमारी डिप्लोमेसी की परीक्षा लेता ही रहेगा। हमें धैर्य से चलना होगा और हौल-हौले कदम बढ़ाने होंगे, एक दम वैसे ही जंगल में बाघ चलता है। लेकिन, जब जरूरत पड़े तो बाघ वाली छलांग भी लगनी होगी। चीन, भारत के लिए किसी असाध्य रोग से कम नहीं है। हमारी सुरक्षा के लिहाज से सबसे बड़ा खतरा है चीन। चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत ने एक बार कहा था कि भारत के लिए चीन सुरक्षा के लिहाज से बड़ा खतरा बन गया है और हजारों की संख्या में सैनिक और हथियार, जो देश ने हिमालय की सीमा को सुरक्षित करने के लिए भेजे थे, लंबे समय तक बेस पर वापस नहीं लौट सकेंगे। जनरल रावत ने चीन को लेकर कुछ ऐसा कहा कि चीन को बहुत कष्ट हुआ। तिलमिलाए चीन ने रावत के बयान पर कहा- ‘भारत बिना किसी कारण के तथाकथित चीनी सैन्य खतरे पर अटकलें लगाता है, जो दोनों देशों के नेताओं के रणनीतिक मार्गदर्शन का गंभीर उल्लंघन है।’
चीन को लेकर भारत के दो रक्षामंत्री भी देश को आगाह कर चुके हैं। जॉर्ज फर्नांडीस ने चीन को भारत का सबसे बड़ा दुश्मन बताया था। पोखरण-2 परमाणु परीक्षण के बाद तत्कालीन एनडीए सरकार के रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस ने दावा किया था कि भारत का चीन दुश्मन नंबर वन है। उनके अलावा पूर्व रक्षा मंत्री स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव भी मानते थे कि भारत का पाकिस्तान से बड़ा दुश्मन चीन है। मुलायम सिंह यादव ने साल 2017 में डोकलाम विवाद के बाद लोकसभा में कहा था कि भारत के लिए सबसे बड़ा मसला पाकिस्तान नहीं, बल्कि चीन है। भारत की चीन से अपने सभी मसलों को प्रेम से सुलझाने की कोशिश के बावजूद चीन सुधरने का नाम ही नहीं लेता। सच में बहुत ही बड़ा धूर्त देश है चीन। दुनिया को कोरोना से तबाह करने वाले देश से आप कोई मानवीय सोच की उम्मीद कैसे कर सकते हैं।
तो भारत क्या करे? भारत को चीन से अपनी निर्भरता खत्म करनी होगी। केंद्रीय सड़क परिवहन, राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने एक बार कहा था- ”हमलोगों ने यह सख्त स्टैंड लिया है कि अगर चीनी कंपनियां किसी ज्वाइंट वेंचर्स के जरिए भी हमारे देश में आना चाहती हैं तो हम इसकी इजाजत नहीं देंगें।” इस बीच, भारत की फार्मा कंपनियों की चीन पर निर्भरता सच कहें तो घोर शर्मनाक है। भारत का फार्मा सेक्टर हर साल देश-विदेश में अपने माल को बेचकर अरबों रुपये कमाता है, पर ये भी सच है कि हमारी सभी सरकारी और निजी क्षेत्र की फार्मा कंपनियां अपनी जेनेरिक दवाओं को बनाने के लिए करीब 85 फीसदी एक्टिव फार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट्स (एपीआई) चीन से ही आयात करती है। एपीआई यानी कच्चा माल। भारत में एपीआई का उत्पादन बेहद कम है और जो एपीआई भारत में बनाया जाता है उसके फाइनल प्रोडक्ट बनने के लिए भी कुछ चीजें चीन से ही मंगानी पड़ती है। यानी भारतीय कंपनियां एपीआई के उत्पादन के लिए भी चीन पर निर्भर हैं। भारतीय फार्मा कंपनियों को अपने पैरों पर खड़ा होना ही होगा। क्या सिर्फ मुनाफा कमाने से ही कोई कंपनी महान हो जाती है? ये तो सिर्फ एक सेक्टर की बात है। कई अन्य सेक्टरों में हम चीन से मिलने वाले कच्चे माल पर ही निर्भर है। 135 करोड़ की आबादी वाले भारत को जागना ही होगा। भारत सिर्फ अपनी सेना के भरोसे ही चीन से नहीं लड़ सकता है। सारे भारत को, भारत के सभी नागरिकों को चीन से मिलकर लड़ना होगा। एक बार हम संकल्प ले लेंगे तो फिर बात बन ही जाएगी।
इस बीच, भारत-चीन संबंधों को लेकर दिया गया नेहरू-चाऊ हन लाई का पंचशील का सिद्दांत अब पूरी तरह निरर्थक लगता है। चीन ने पंचशील के सिद्धांत पर कभी अमल नहीं किया। हमने तो भारत की राजधानी नई दिल्ली में एक सड़क का नाम भी पंचशील मार्ग रखा हुआ है। पंचशील शब्द मूलतः बौद्ध साहित्य व दर्शन से जुड़ा शब्द है। चौथी-पांचवी शताब्दी के बौद्ध दार्शनिक बुद्धघोष की पुस्तक “विशुद्धमाग्गो” में “पंच शील” मतलब, पांच व्यवहार की विस्तृत चर्चा है, जिस पर बौद्ध उपासकों को अनुसरण करने की हिदायत दी गई है। पंचशील में शामिल सिद्धांत थे राष्ट्रवाद, मानवतावाद, स्वाधीनता, सामाजिक न्याय और ईश्वरआस्था की स्वतंत्रता। इतना महत्वपूर्ण शब्द और सिद्धांत अब चीन के द्वारा बेमानी हो चुका है।
(लेखक, वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)