Friday, November 22"खबर जो असर करे"

राहुल गांधी की संसदीय अयोग्यताः साजिश या सियासत

– विकास सक्सेना

मानहानि के मामले में दो साल की सजा मिलने से संसद सदस्यता के अयोग्य हो चुके कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इस सजा के खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील नहीं की है। दिग्गज वकीलों की भारी भरकम फौज होने के बावजूद कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेता की संसद सदस्यता बचाने वाली अपील में देरी से लोगों के मन में तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं। वे समझ नहीं पा रहे कि 10 दिन से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील न करना कांग्रेस की राजनैतिक रणनीति का हिस्सा है या फिर राहुल गांधी किसी गहरी सियासी साजिश का शिकार हो रहे हैं। हालांकि सोशल मीडिया पर हो रही चर्चा के दबाव में माना जा रहा है कि राहुल गांधी के वकील जल्द ही इस मामले में ऊपरी अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे।

दरअसल लोकसभा चुनाव 2019 के दौरान कर्नाटक के कोलार में एक चुनावी जनसभा के दौरान उन्होंने कथित तौर पर मोदी उपनाम पर आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। इस मामले में गुजरात के भाजपा नेता पूर्णेश मोदी ने उनके खिलाफ आपराधिक मानहानि का मुकदमा दर्ज कराया। मुकदमे के दौरान राहुल गांधी ने अपने बयान पर माफी मांगने से साफ इनकार कर दिया। यहां तक कि सजा मिलने के बाद भी उन्होंने कहा कि ’’मेरा नाम सावरकर नहीं हैं, मेरा नाम राहुल गांधी हैं। गांधी माफी नहीं मांगते।‘‘

हालांकि कांग्रेस के नेता लगातार कह रहे हैं राहुल गांधी का बयान सिर्फ ललित मोदी और नीरव मोदी जैसे भगोड़े अपराधियों के खिलाफ था, इसका मोदी उपनाम वाले समुदाय से कोई सम्बंध नहीं था। लेकिन अगर राहुल गांधी और उनके वकीलों ने अदालत में इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए इतना भर साबित कर दिया होता कि उनके बयान का उद्देश्य मोदी सरनेम वाले समुदाय को अपमानित करना नहीं था। इसके अलावा वे इसको लेकर जिनकी भावनाएं आहत हुई हैं, उनसे खेद भी जता सकते थे, तो संभवतः उन्हें इस मामले में दो साल की अधिकतम सजा नहीं होती। वे बार-बार यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि वह माफी नहीं मांगते। हालांकि ’’चौकीदार चोर है‘‘ वाले मामले में वह उच्चतम न्यायालय में बिना शर्त माफी मांग चुके हैं। ऐसे में राहुल गांधी का अपने बयान पर खेद न जताना किसी राजनैतिक रणनीति का हिस्सा या उनके खिलाफ सियासी साजिश ज्यादा नजर आता है।

राहुल गांधी की सजा को राजनैतिक रणनीति का हिस्सा मानने वालों को लगता है कि यह भाजपा और नरेंद्र मोदी को घेरने का विपक्षी दलों के पास सबसे कारगर हथियार साबित होगा। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने भाजपा पर साम्प्रदायिकता, जातिवाद, घातक आर्थिक नीतियों के आरोप लगाए हैं लेकिन इनका देश के मतदाताओं पर कोई खासा प्रभाव नहीं पड़ा। भाजपा के लगातार बढ़ते जनाधार से कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों के सामने अस्तित्व का संकट गहराने लगा है। इसलिए वे अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव 2024 में किसी भी कीमत पर भाजपा को सत्ता में आने से रोकना चाहते हैं। इस बार विपक्ष ने भाजपा को संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग, लोकतांत्रिक मूल्यों को खत्म करने और देश में तानाशाही करके अघोषित आपातकाल जैसे हालात बनाने के आरोप लगाने शुरू किए हैं। विपक्षी दलों को उम्मीद है कि अंतरराष्ट्रीय ताकतों के सहयोग से वे भाजपा के खिलाफ लोकतंत्र विरोधी और तानाशाही के विमर्श गढ़ कर आम चुनावों में भाजपा की राह रोकने में कामयाब हो सकेंगे।

विपक्षी दलों के नेताओं पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई की कार्रवाइयों को आधार बनाकर मोदी विरोधी पहले से ही सरकार पर संस्थाओं के दुरुपयोग के आरोप लगाते रहे हैं। उन्होंने तो चुनाव आयोग जैसे स्वायत्त संस्थान और कई मामलों मनमुताबिक फैसला न आने पर न्यायालय के निर्णयों को भी सरकार से प्रभावित बताने की कोशिश की है। केंद्र की भाजपा सरकार को जनता की नजरों से गिराने की रणनीति पर काम कर रहे कांग्रेस सहित दूसरे विपक्षी दलों को राहुल गांधी की सजा एक हथियार के तौर पर मिल गई या फिर अदालत में समुचित पैरवी न करके यह सजा हासिल की गई ताकि सरकार पर तानाशाही के आरोप ज्यादा प्रमाणिक तरीके से लगाए जा सकें।

राजनैतिक चिंतकों का एक वर्ग ऐसा भी है जो राहुल गांधी को मिली सजा को एक सियासी साजिश के तौर पर देखता है। उनका मानना है कि कांग्रेस पर आधिपत्य स्थापित करने को लेकर गांधी परिवार के भीतर चल रही खींचतान के चलते षड्यंत्र रचकर राहुल गांधी को लम्बे समय के लिए चुनावी राजनीति से दूर कर दिया गया है। इसके अलावा देश की सक्रिय राजनीति में राहुल गांधी की मौजूदगी को भाजपा की जीत का महत्वपूर्ण कारण मानने वाले भी इस राहुल गांधी को राजनैतिक फलक से दूर करने की इस साजिश का हिस्सा हो सकते हैं। राजनैतिक हलकों में इस बात की चर्चा आम है कि कांग्रेस पार्टी शक्ति के तीन प्रमुख केंद्रों सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी में बंटी हुई है। तीनों के समर्थकों के बीच पार्टी और सरकार में पदों को हासिल करने को लेकर आए दिन खींचतान भी होती रहती है।

पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं के एक बड़े वर्ग को लगता है कि प्रियंका गांधी की नेतृत्व क्षमता राहुल गांधी की अपेक्षा बेहतर है। आमलोगों से संवाद स्थापित करने की कला में भी वह ज्यादा निपुण हैं। इसके बावजूद उन्हें अभी तक चुनावी राजनीति से दूर रखा गया। यहां तक कि लोकसभा चुनाव 2019 में करारी हार के बाद जब राहुल गांधी ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया तो साफ कर दिया कि अब उनके परिवार को कोई सदस्य कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं बनेगा। राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस पार्टी पर राहुल गांधी का वर्चस्व बनाए रखने के लिए ही प्रियंका गांधी को लम्बे समय तक संगठन की गतिविधियों से अलग रखा गया और अभी तक उन्होंने या उनके पति रावर्ट बाड्रा ने लोकसभा या विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ा है।

भारत जोड़ो यात्रा के दौरान हाड़ कंपा देने वाली ठंड के बीच देश और दुनिया ने राहुल गांधी को हॉफ टी शर्ट में पैदल चलते देखा। हालांकि उनके इस तरह घूमने से देश की जनता के बीच न तो किसी तरह का राजनैतिक संदेश जा रहा था और न ही इसका कोई राजनैतिक लाभ मिलने की उम्मीद थी। इस घटना से इतना तो साफ है कि राहुल गांधी को मामूली सा उकसा कर उनसे बिना लाभ-हानि की परवाह किए कोई भी काम कराया जा सकता है। स्वास्थ्य कारणों से सोनिया गांधी भी सक्रिय राजनीति से संन्यास ले सकती हैं। इसलिए निकट भविष्य में कांग्रेस की कमान प्रियंका गांधी के परिवार के हाथ में ही आने की प्रबल संभावना है। इधर मोदी विरोधियों का एक वर्ग ऐसा भी है जिसे लगता है कि लोकसभा चुनाव मोदी बनाम राहुल गांधी हो जाने से भाजपा की जीत आसान हो जाती है। इसलिए मोदी को हराने के लिए राहुल को हटाना जरूरी है। ऐसे में स्वातंत्र्य वीर सावरकर के नाम पर राहुल गांधी को उकसा कर मोदी उपनाम मामले में फंसाकर उन्हें सक्रिय चुनावी राजनीति से लम्बे समय के लिए दूर करने की साजिश संभावना को सिरे से खारिज करना आसान नहीं है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)