– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजस्थान में राहुल गांधी ने अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई की जमकर वकालत कर दी। राहुल ने कहा कि भाजपा अंग्रेजी की पढ़ाई का इसलिए विरोध करती है कि वह देश के गरीबों, किसानों, मजदूरों और ग्रामीणों के बच्चों का भला नहीं चाहती है। भाजपा के नेता अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में क्यों पढ़ाते हैं? राहुल ने जो आरोप भाजपा के नेताओं पर लगाया, वह ज्यादातर सही ही हैं लेकिन राहुल जरा खुद बताएं कि वह खुद और उसकी बहन क्या हिंदी माध्यम की पाठशाला में पढ़े हैं?
देश के सारे नेता या भद्रलोक के लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में इसीलिए भेजते हैं कि भारत दिमागी तौर पर अभी भी गुलाम है। उसकी सभी ऊंची नौकरियां अंग्रेजी माध्यम से मिलती हैं। उसके कानून अंग्रेजी में बनते हैं। उसकी सरकारें और अदालतें अंग्रेजी में चलती हैं। भाजपा ने अपनी नई शिक्षा नीति में प्राथमिक शिक्षा को स्वभाषा के माध्यम से चलाने का आग्रह किया है, जो कि बिल्कुल सही है। लेकिन भाजपा और कांग्रेस, दोनों की कई प्रांतीय सरकारें अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को प्रोत्साहित कर रही हैं। किसी विदेशी भाषा को पढ़ना एक बात है और उसको अपनी पढ़ाई का माध्यम बनाना बिल्कुल दूसरी बात है।
मैंने पहली कक्षा से अपनी अंतरराष्ट्रीय पीएचडी तक की परीक्षाएं हिंदी माध्यम से दी हैं। स्वभाषा के माध्यम से पढ़ने का अर्थ यह नहीं है कि आप विदेशी भाषाओं का बहिष्कार कर दें। मैंने हिंदी के अलावा संस्कृत, जर्मन, रूसी और फारसी भाषाएं भी सीखीं। अंग्रेजी तो हम पर थोप ही दी जाती है। राहुल का यह तर्क सही है कि गरीब और ग्रामीण वर्ग के बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में नहीं पढ़ते, इसलिए वे पिछड़ जाते हैं। वे भी अंग्रेजी पढ़ें और अमेरिका जाकर अमेरिकियों को भी मात दें। राहुल की यह बात मुझे बहुत पसंद आई लेकिन मैं पूछता हूं कि हमारे कितनी विद्यार्थी अमेरिका या विदेश जाते हैं?
कुछ हजार छात्रों की वजह से करोड़ों छात्रों का दम क्यों घोटा जाए? जिन्हें विदेश जाना हो, वे साल-दो साल में उस देश की भाषा जरूर सीख लें लेकिन किसी विदेशी भाषा को 16 साल तक अपनी पढ़ाई का माध्यम बनाए रखना और उसे करोड़ों बच्चों पर थोप देना कौन सी अक्लमंदी है? हिरण पर घास क्यों लादी जाए? यदि हमारे नेता लोग चाहते हैं कि गरीबों, ग्रामीणों, पिछड़ों, किसानों और मजदूरों के बच्चों को भी जीवन में समान अवसर मिलें तो देश में सभी बच्चों के लिए स्वभाषा-माध्यम की पढ़ाई अनिवार्य होनी चाहिए।
अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई पर कठोर प्रतिबंध होना चाहिए। विदेशी संपर्कों के लिए हमें सिर्फ अंग्रेजी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। विदेश-व्यापार, विदेश नीति और उच्च शोध के लिए अंग्रेजी के साथ-साथ फ्रांसीसी, जर्मन, चीनी, रूसी, अरबी, हिस्पानी, जापानी आदि कई विदेशी भाषाओं की पढ़ाई भी भारत में सुलभ होनी चाहिए। दुनिया के किसी भी संपन्न और शक्तिशाली राष्ट्र में छात्र-छात्राओं की पढ़ाई का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)