– डॉ. अजय खेमरिया
सुप्रीम कोर्ट इस साल दो बार निजी अस्पतालों द्वारा आमजनता से उपचार के नाम पर की जा रही देशव्यापी लूट को लेकर सख्त टिप्पणी कर चुका है। एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान पिछले महीने कोर्ट ने यहां तक कह दिया कि अगर केंद्र और राज्य सरकारें निजी अस्पतालों में एकरूपता के साथ उपचार की दरें तय नही कर पाती हैं तो कोर्ट खुद सीजीएचएस यानी केंद्रीय कर्मचारियों के लिए निर्धारित दरों को देश भर में लागू करने के आदेश दे देगा।
दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि देश में हर साल 6.3करोड़ लोग महंगे इलाज के चलते गरीबी के दलदल में फंस जाते है लेकिन देश के आम चुनावों में यह मुद्दा कहीं भी सुनाई नहीं दे रहा है। आरक्षण,संविधान बदलने औऱ धार्मिक तुष्टिकरण,जातिगत जनगणना जैसे मुद्दे इस लोकसभा चुनाव में विमर्श का केंद्रीय बिषय बने हुए है जबकि जनसरोकार की राजनीति के लिए यह जरूरी था कि पक्ष -विपक्ष जन स्वास्थ्य को लेकर भी अपनी चिंताओं को लेकर वोटरों के बीच जाते। अमरीका, इंग्लैंड ,फ्रांस जैसे लोकतंत्र में स्वास्थ्य के अधिकार और सरकारों के प्रदर्शन पर चुनावी चर्चाएं खूब होती है लेकिन हमारे देश में ऐसा नहीं होता है। इस मामले में हम किसी एक दल को दोषी नहीं ठहरा सकते हैं क्योंकि कोई भी दल शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और अन्य मूलभूत मुद्दों पर चुनावी राजनीति को आगे बढ़ाने में भरोसा नही रखते हैं।
कोरोना महामारी के दौरान देश के प्राइवेट अस्पतालों ने जिस तरह संगठित लूट का उदाहरण जनता के साथ प्रस्तुत किया था उसके बाद यह आशा जगी थी कि सरकारें इस महत्वपूर्ण मसले पर नीतिगत रूप से आगे बढ़ेंगी लेकिन सुप्रीम कोर्ट की ताजा रुख से स्पष्ट है कि देश में निजी अस्पतालों पर किसी का अंकुश नही है।स्वास्थ्य राज्य का विषय है इसलिए सीधे इस मामले में जबाबदेह भी राज्य सरकारें ही है । 15 साल पहले क्लिनिकल एस्टब्लिश्मेन्ट एक्ट बनाया गया जिसमें निजी अस्पतालों के लिए विनियमित करने के प्रावधान थे लेकिन अभी तक केवल 15 राज्यों ने ही इसे अपने यहां लागू किया है।नतीजतन देश की राजधानी दिल्ली से लेकर एनसीआर,हरियाणा, यूपी,जैसे राज्यों में निजी अस्पताल आम आदमी के लिए लूट के अड्डे बन गए हैं।
भारत को दुनिया फार्मा हब कहा जाता है लेकिन इसके बाद भी देश के लोग ब्रांडेड दवाओं के नाम पर महंगी दवाओं पर निर्भर है।इस मामले में एक पूरा इकोसिस्टम काम करता है क्योंकि भारत में अकेले दवाओं का कारोबार ही 2 लाख करोड़ का है।बड़ी कम्पनियां पे रोल पर बड़ी संख्या में डॉक्टरों को अपने यहां रखती हैं जो रिसर्च के नाम पर अलग अलग बीमारियों के लिए ब्रांडेड दवाओं के लिए वातावरण बनाने का काम करते हैं।नतीजतन मोदी सरकार के लाख प्रयासों के बावजूद जन औषधि केंद्रों के जरिये सस्ती दवाओं की उपलब्धता का सपना पूरा नही हो पा रहा है। इसका बड़ा कारण यह भी है कि देश के कुल पंजीकृत एलोपैथी डॉक्टरों का केवल 20 फीसदी ही सरकारी सेवाओं में है यानी 80 फीसदी डॉक्टरों पर सरकार का कोई सीधा नियंत्रण नही है।जाहिर है सस्ती दवाओं को प्रचलन में लाया जाना बगैर डॉक्टरों के संभव नही है। दूसरी तरफ करीब 800 ब्रांडेड दवाओं की कीमत पिछले दो साल में ही 15 फीसदी तक बढ़ गई हैं केंद्र सरकार के अधीन दवा मूल्य नियंत्रण प्राधिकरण ने ही दाम बढ़ाने की अनुमति दी है।
कारपोरेट इंडिया की हालिया रिपोर्ट बताती है कि देश में स्वास्थ्य संबधी महंगाई पिछले पांच साल खासकर कोरोना के बाद 14 प्रतिशत बढ़ गई है।यह बढ़ोतरी सामान्य मुद्रा स्फीति के दोगने के बराबर है।वैश्विक रूप से देखे तो भारत में 63 प्रतिशत लोगों का खर्चा अपनी आमदनी के अनुपात में इलाज पर ज्यादा होता है।यानी लोग बगैर सरकारी मदद के अपना इलाज कराते हैं।इसमें खास बात यह है कि इस खर्च में 72 प्रतिशत खर्चा दवाओं और उपकरणों का होता है।यह तब है जब भारत विश्व में दवाओं के निर्माण में अग्रणी देश है।देखा जाए तो सरकारें आज भी आम आदमी के स्वास्थ्य को बुनियादी अधिकार की मान्यता देने में बहुत ही पीछे हैं।
संसद में सरकार ने खुद बताया कि भारत में एक साल में एक आदमी पर एक साल में सरकारी खर्च महज अठारह सौ रुपए है जबकि एक सांसद के ऊपर यह इक्यावन हजार आता है।नेशनल हैल्थ अकाउंट्स की रिपोर्ट बताती है कि विगत वर्ष कुल 5.96 लाख करोड़ जन स्वास्थ्य पर खर्च हुए जिसमें केंद्र और राज्य सरकारों ने मिलकर 2.42 करोड़ ही खर्च किये,शेष राशि देश के नागरिकों ने अपनी जेब से खर्च की है। बेशक मोदी सरकार ने आयुष्मान भारत जैसी अच्छी योजना आरम्भ कर करीब 11 करोड़ परिवार और 50 करोड़ लोगों को पांच लाख के स्वास्थ्य बीमा कवरेज प्रदान किया है लेकिन आंकड़े बताते है कि 50409 करोड़ खर्च करने के बाबजूद महज 4 करोड़ 30 लाख लोग ही इसके जरिये प्रत्यक्ष लाभार्थियों में शामिल हुए हैं।
यहां भी ध्यान देने वाली बात यह है कि इस आंकड़े में दक्षिण के राज्य सर्वाधिक हैं जहां पहले से ही जन स्वास्थ्य सुविधाएं शेष भारत से बेहतर हैं।जाहिर है देश में स्वास्थ्य बीमा के क्षेत्र में अभी बहुत बड़े पैमाने पर काम की आवश्यकता है। आज भी निजी क्षेत्र के 71 प्रतिशत कर्मचारियों को अपने इलाज के लिए अपनी जेब से खर्च करना पड़ता है,केवल 15 फीसदी कम्पनियां ही अपने कर्मचारियों को बीमा कवरेज देती हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि 2023 में कामकाजी लोगों की संख्या 52.2करोड़ है जो 2030 में बढ़कर 56.9 करोड़ हो जायेगी। स्वास्थ्य बीमा कंपनियों का प्रीमियम भी इस बीच लगातार बढ़ रहा है। कोरोना के बाद से इसमें 25 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो चुकी है। स्वास्थ्य बीमा कंपनियों का दावा है कि उपचार की लागत के साथ बीमा दावे भी बढ़ रहे हैं।इसलिए बढ़ते प्रीमियम ऐसे वर्ग की पहुच से दूर हो रहे हैं जो आयुष्मान या सीजीएचएस जैसे कवरेज में नहीं आते हैं।
2023 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, बीमा पहुंच में 2.7 प्रतिशत से बढ़कर 04 पर आ गई है लेकिन अन्य देशों की तुलना में भारत में स्वास्थ्य बीमा की पहुंच आज भी बहुत कम है। दुनिया भर के लिहाज से भारत दूसरा सबसे कम बीमा कवरेज वाला देश है।एक महत्वपूर्ण पक्ष निजी बीमा कम्पनियों की यह भी है कि करीब 70 फीसदी क्लेम के मामले कम्पनियों द्वारा खारिज कर दिए जाते है या विवादित होकर वे अलग अलग उपभोक्ता आयोग के पास पहुँचते हैं।हालांकि अधिकतर बीमा धारक तो विवाद की स्थिति में कानूनी सहायता से ही परहेज करते हैं।ऐसे में एक देशव्यापी स्वास्थ्य बीमा या गारन्टी की आवश्यकता है जो लोगों को अपनी जेब से खर्च को कम कर एक समावेशी स्वास्थ्य सेवा की उपलब्धता सुनिश्चित करती हो।
आज स्थिति यह है । 2022 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार अगर कोई व्यक्ति सिर्फ बुखार से पीड़ित होकर सरकारी अस्पताल में भर्ती होता है तो उसे 2,845 रुपये खर्च करने पड़ते है, वहीं प्राइवेट अस्पताल में यह खर्च 15,513 हो जाता है। अन्य बीमारियों के इलाज पर आने वाले खर्च का अंदाजा इससे सहज ही लगाया जा सकता है। सभी जानते है कि हमारे देश में स्वास्थ्य पर कुल जीडीपी का खर्च आज भी 2 फीसदी है जबकि देश में 80 करोड़ लोग गरीब है अगर यह खर्च 4 फीसदी तक बढ़ा दिया जाता है तो करीब 45 फीसदी गरीब लोगों को बेहतर जीवन मुहैया करा सकता है।सरकारी स्वास्थ्य खर्च का बड़ा हिस्सा आज भी बिल्डिंग, उपकरणों औऱ अन्य अनुत्पादकीय मदों में होता है।हालांकि मोदी सरकार ने पिछले दस सालों में नए मेडिकल कॉलेजों की संख्या दोगुनी से ज्यादा करके डॉक्टरों की उपलब्धता को बढ़ाने का प्रयास किया है वह डिस्ट्रिक्ट वन मेडिकल कॉलेज की योजना से दूरदराज के क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ रही हैं लेकिन बड़ा सवाल यह कि क्या इन कॉलेजों से निकलने वाले डॉक्टर सार्वजनिक सेवाओं को अपनाने के लिए तैयार होंगे?जो फिलहाल खराब सरकारी नीतियों के चलते प्राइवेट अस्पतालों को ही प्राथमिकता देते है।
एक सर्वे के अनुसार जिन जिलों में नए मेडिकल कॉलेज खोले गए है वहां पहले की तुलना में औसतन 15 नए निजी अस्पताल खुल रहे है।जाहिर है आम।आदमी के लिए सरकारी अस्पताल आज भी विश्वसनीय सेवाओं के केंद्र नही हैं।ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक ही है कि देश में आम आदमी के लिए स्वास्थ्य का अधिकार कैसे संभव होगा?आम चुनाव में इसकी कहीं कोई चर्चा नही है।
(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं।)