– डॉ दिलीप अग्निहोत्री
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर अपनी सुदृढ़ विदेश नीति का परिचय दिया है। उन्होंने इजरायल पर आतंकवादी संगठन हमास के हमले को निंदनीय बताया। उन्होंने कहा कि इस संकट के समय भारत, इजरायल के साथ है। वस्तुतः प्रधानमंत्री मोदी का निर्णय राष्ट्रीय हित और भारतीय विरासत के अनुरूप है। इजरायल, चीन और पाकिस्तान के विरुद्ध भारत का खुला समर्थन कर चुका है। संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर अन्य अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इजरायल ने भारत का साथ दिया है। उसने यहां तक कहा था कि भारत यदि चीन और पाकिस्तान के विरुद्ध कार्रवाई करेगा तो इजरायल पूरी सहायता देगा। हमास के हमले के समय भारत ने इजरायल के प्रति जो सहानुभूति दिखाई, वह नैतिक रूप से उचित है। वैसे भी भारत ने सदैव आतंकवाद का विरोध किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ में आतंकवाद के विरुद्ध साझा रणनीति बनाने का प्रस्ताव मोदी ने ही किया था।
जब से प्रधानमंत्री मोदी ने भारत की कमान संभाली है, तब से आंतरिक और बाह्य सुरक्षा सुदृढ़ हुई है। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले कार्यकाल में ही इजरायल और अरब देशों के साथ संबंध बेहतर बनाने पर ध्यान दिया। यह नीति कारगर साबित हुई। मोदी के सौर ऊर्जा प्रस्ताव को भी अरब देशों का समर्थन मिल चुका है। संयुक्त राष्ट्र संघ में उनके अंतरराष्ट्रीय योग दिवस को अरब देश भी स्वीकार कर चुके हैं। इस दिन वहां भी बड़े पैमाने पर योग के कार्यक्रम होते हैं। इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने संयुक्त राष्ट्र में भारत का समर्थन किया था। उन्होंने कहा था कि कश्मीर भारत का हिस्सा है। यही नहीं उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व की प्रशंसा की थी। आज इजरायल, भारत का बड़ा सहयोगी बनकर उभरा है। अरब देश भी मोदी की नीतियों के मुरीद हुए हैं।
मोदी की मध्यपूर्व नीति की बड़ी सफलता यह भी है कि उन्होंने अरब मुल्कों और इजरायल के साथ दोस्ती को मजबूत किया। इसके पहले कांग्रेस की सरकारों में इजरायल से दोस्ती को लेकर बड़ा संकोच था। उन्हें लगता था कि इजरायल से दोस्ती मुस्लिम देशों को नाराज कर देगी। मगर मोदी ने इसकी परवाह नहीं की। साहस दिखाया। अरब और इजरायल दोनों से संबंध बेहतर बनाकर दिखा दिया। वैसे भी दुनिया में अगर शांति, सौहार्द कायम करना है, मानवता को सुरक्षित रखना है तो आतंकवाद के खिलाफ साझा रणनीति बनानी होगी। आतंकवाद अब किसी एक क्षेत्र की समस्या नहीं है। यह सारी दुनिया के लिए खतरा है। अब जरूरत इस बात की भी है कि आतंकवाद को संरक्षण और वित्तीय सहायता देने वालों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया जाए। भारत का रुख इस पर बिलकुल साफ है। ओआईसी के सदस्य देश भी इसमें बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। आतंकवाद शांति और सद्भावना को कमजोर करता है।
साल 1988 में यासिर अराफात ने मध्यपूर्व में इजरायल के अस्तित्व को मान्यता देते हुए स्वतंत्र फिलिस्तीन निर्माण की नीति घोषित की थी। इसके बाद ही समाधान की संभावना दिखाई दी थी। किंतु इस नीति के विरोध में हमास की गतिविधियां बढ़ीं। वह लगातार क्रूर होता गया। अब तो उसने सारी हद पार कर दी है। मध्यपूर्व में यहूदी राष्ट्र के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। यह सच है कि अल अक्शा मस्जिद से मुसलमानों की आस्था जुड़ी है। मगर यह भी सत्य है कि यहूदियों की आस्था यहां के टेंपल माउंट से जुड़ी है। दावा है कि यहां उनके दो प्राचीन पूजा स्थल हैं। पहले को किंग सुलेमान ने बनवाया था। बेबीलोन्स ने इसे तबाह कर दिया था। फिर उसी जगह यहूदियों का दूसरा मंदिर बनावाया गया, जिसे रोमन साम्राज्य ने नष्ट कर दिया। इसका उल्लेख बाइबिल में भी बताया जाता है।
जाहिर है कि इजरायल का दावा सर्वाधिक प्राचीन है। इस समय यहां इजरायल का कब्जा है। यरुशलम में ईसाइयों का द चर्च ऑफ द होली सेपल्कर है। मान्यता है कि ईसा मसीह को यहीं सूली पर चढ़ाया गया था। यहीं प्रभु यीशु के पुनर्जीवित हो उठने वाली जगह भी है। 1967 के युद्ध में इजराइल ने पूर्वी यरुशलम पर भी कब्जा कर लिया था। पूरे यरुशलम को ही वह अपनी राजधानी मानता रहा है। फिलिस्तीनी भी इसे अपनी भावी राजधानी के रूप में देखते हैं। इजराइल का वर्तमान भू-भाग कभी तुर्किये के अधीन था। तुर्किये का वह साम्राज्य ओटोमान कहलाता है। जब 1914 में पहले विश्व युद्ध के दौरान तुर्किये के मित्र राष्ट्रों के खिलाफ होने से तुर्किये और ब्रिटेन के बीच युद्ध हुआ। ब्रिटेन ने युद्ध जीतकर ओटोमान साम्राज्य को अपने अधीन कर लिया।
जियोनिज्म विचार के अनुसार यहूदियों ने अपनी मूल व मातृभूमि को पुनः हासिल करने का संकल्प लिया था। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी स्थापना के दो वर्ष बाद फिलिस्तीन को दो हिस्सों में बांटने का निर्णय लिया था। इस प्रकार इजरायल अस्तित्व में आया। 1993 में इजरायल के नेतृत्व व अराफात दोनों ने लचीला रुख दिखाते हुए ओस्लो समझौता किया। इसके अनुसार इजरायल ने पहली बार फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन को मान्यता प्रदान की। यह भी तय हुआ था कि पश्चिमी तट के जेरिको और गाजा पट्टी में फिलिस्तीनियों को सीमित स्वयत्तता प्रदान की जाएगी। 1996 में गाजा पट्टी क्षेत्र के करीब दस लाख मतदाताओं ने 88 सीटों के लिए मतदान किया था।
इसी परिषद ने बाद में यासिर अराफात को फिलिस्तीन का राष्ट्रपति निर्वाचित किया था। 1997 में अराफात की पहल पर फिर एक समझौता हुआ। इसमें तय हुआ कि पश्चिमी तट का अस्सी प्रतिशत हिस्सा तीन चरणों में फिलिस्तीन को सौंप दिया जाएगा। लेकिन हर बार हमास की गतिविधियों ने शांति प्रयासों को विफल किया। इससे इजरायल को फिलिस्तीन पर हमले का अवसर मिलता है। इसलिए हमास को दशकों से जारी अपनी आतंकी मानसिकता बदलनी होगी। इस संवेदनशील मसले का समाधान शांति वार्ता से ही निकल सकता है।
सर्वधर्म सद्भाव भारत का प्रचलित शब्द है। यहां के जैसी विविधता दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं है। जहां कुछ अंशों में मजहबी अंतर है, वहां तनाव व्याप्त है। लोग एक-दूसरे को संदेह से देखते हैं। सभ्यताओं के संघर्ष का विस्तृत इतिहास है। आधुनिक समय में भी उसके तत्व विद्यमान है। आतंकी गतिविधियों ने अमेरिका से लेकर यूरोप तक वर्ग विशेष को बेगाना बना दिया है। यहां सर्वधर्म सद्भाव की कोई अवधारणा नहीं है। जबकि समाधान इसी से संभव है। खासतौर पर यरुशलम में यह विचार कसौटी है। यहां स्थायी शांति का अन्य कोई माध्यम नहीं है।
यरुशलम मजहबी रूप से बेहद संवेदनशील क्षेत्र है। यहां से यहूदी, ईसाई व मुसलमानों की आस्था जुड़ी है। इनमें से किसी को भी नजरअंदाज करना संभव नहीं है। इस संबंध में कोई भी समाधान शांति व सौहार्द से ही संभव है। यहां सदैव संघर्ष से स्थिति बिगड़ती रही है। इसबार भी यही हुआ है। फिलिस्तीनियों ने भी यथास्थिति का उल्लंघन किया है। हमास ने इसमें आग में घी डालने जैसा काम किया। दुश्मनों के प्रति इजरायल की नीति स्पष्ट है। वह छेड़ने वाले को छोड़ता नहीं है। इजरायल अपनी चिर परिचित शैली में जवाब दे रहा है।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)