– डॉ. प्रभात ओझा
कांग्रेस अध्यक्ष पद पर मल्लिकार्जुन खड़गे का चुना जाना पहले से ही तय माना जा रहा था। ऐसा हुआ भी। अशोक गहलोत की उम्मीदवारी की घोषणा और फिर उनके मैदान से हट जाने के बाद नामांकन के सिर्फ एक दिन पहले खड़गे के पर्चा दाखिले के वक्त से ही यह आमतौर पर स्पष्ट हो चला था। निर्वाचन प्रक्रिया के दौरान एकाधिक बार शशि थरूर ने इस ओर संकेत कर यह बताने की कोशिश की थी कि खड़गे आधिकारिक उम्मीदवार माने जा रहे हैं। ऐसा कांग्रेस के कुछ निवर्तमान पदाधिकारियों के खड़गे के साथ दिखाई देने के आधार पर कहा गया। इससे अलग और साफ संकेत राहुल गांधी के बयान से भी मिला, जिस पर मीडिया अथवा कांग्रेस पार्टी के अंदर चुनाव प्रणाली पर नजर रखने वालों का कम ध्यान गया।
राहुल गांधी भारत जोड़ो पदयात्रा पर हैं। अपने भविष्य की भूमिका के बारे में पत्रकारों के पूछे जाने पर उन्होंने साफ तौर पर कहा कि यह मल्लिकार्जुन खड़गे जी तय करेंगे। ऐसा उन्होंने उस समय कहा, जब दिल्ली में मतगणना सुरू ही हुई थी। स्पष्ट तौर पर गांधी परिवार भी यह मानकर चल ही रहा था कि उनकी पसंद का ही अध्यक्ष पार्टी का भविष्य तय करेगा। ऐसे में राहुल गांधी के बयान को औपचारिकता मात्र समझना चाहिए।
उपर्युक्त तथ्य के साथ एक अलग तरह का नजारा देखने को मिला है। कोई भी सुलझा हुआ राजनेता वही करेगा, जो निवर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी ने किया है। निर्वाचन के बाद वे पार्टी की महासचिव और अपनी पुत्री प्रियंका के साथ बधाई देने श्री खड़गे के आवास पर पहुंचीं। निश्चित ही खड़गे भी कांग्रेस परंपरा के (गांधी परिवार परंपरा के नहीं) नेता हैं। कम से कम अपने विजयोल्लास में श्रीमती गांधी का आशीर्वाद लेने वे उनके आवास पर नहीं पहुंचे। हालांकि ऐसा कर वह कह सकते थे कि निर्वाचित अध्यक्ष निवर्तमान अध्यक्ष के आवास पर गया तो इसमें बुराई भी क्या है। हालांकि तब विपक्ष के इस तर्क को बल मिलता कि अध्यक्ष तो गांधी परिवार की इच्छा के अनुरूप ही तय होना था।
बहरहाल, शशि थरूर ने मतगणना के दिन अपने चुनाव प्रभारी सलमान सोज के निर्वाचन अधिकारी मधुसूदन मिस्त्री को लिखे पत्र के लीक होने को इशारों में ही गलत करार दिया। सलमान सोज ने मतदान में उत्तर प्रदेश, पंजाब और तेलंगाना में कुछ अनियमितताओं की शिकायत की थी। परिपक्व राजनेता ने जरूर खड़गे को बधाई देकर स्वस्थ परंपरा के अपने निर्वाह को आगे भी कायम रखने की ओर इशारा किया है। हालांकि इसके बाद शशि थरूर का भविष्य क्या होगा, इस पर चर्चा की जा सकती है। इस बार कम से कम गांधी परिवार का कोई उम्मीदवार मैदान में नहीं था। पहली बार सन् 2000 में सोनिया गांधी का सीधा मुकाबला जितेंद्र प्रसाद ने किया था। उस समय श्री प्रसाद को 100 से भी कम केवल 94 वोट मिले थे। सोनिया गांधी को 7,400 से अधिक मत हासिल हुए थे। इस बार तो शशि थरूर हजार से ज्यादा 1072 वोट और खड़गे को 7,897 मत मिले।
प्रश्न गांधी परिवार से बाहर के अध्यक्ष का है। श्रीमती गांधी 2000 के इस चुनाव के पहले से और अब तक करीब 23 साल इस पद पर रहीं। इस बीच राहुल गांधी के भी अध्यक्ष पद संभालने का प्रयोग चला। आजादी के बाद 1950 के चुनाव में आचार्य कृपलानी को पुरुषोत्तम दास टंडन ने हरा दिया था। कहा गया कि कृपलानी पंडित नेहरू के और टंडन सरदार पटेल के उम्मीदावार थे। ऐसा आजादी के पहले 1939 में सुभाष चंद्र बोस के मुकाबले पट्टाभि सीतारमैया की हार को तो महात्मा गांधी ने अपनी हार के रूप में खुलेआम स्वीकारा था। तो 1939 और 1950 ये दो अवसर हैं, जब कांग्रेस के सर्वमान्य नेता कहे जाने वालों की हार हुई थी।
वैसे खुले मुकाबले तो और भी हुए। आजादी के बाद सोनिया-जितेंद्र प्रसाद के बीच चुनावी संघर्ष के अलावा 1977 में भी पार्टी की करारी हार के बाद जब देवकांत बरुआ ने अध्यक्ष पद छोड़ दिया था, ब्रह्मानंद रेड्डी, सिद्धार्थ शंकर रे और डॉ. कर्ण सिंह के बीच मुकाबले में रेड्डी विजयी हुए थे। फिर 1997 में सीताराम केसरी ने शरद पवार और राजेश पायलट को हराया था। बहरहाल, कांग्रेस में उसके शीर्ष पद के लिए एक बार फिर चुनाव हुए हैं। कुछ दिनों तक यह बात चलती रहेगी कि राजनीतिक दलों में आतंरिक चुनाव कैसे हुआ करते हैं। इनमें कांग्रेस ने एक परिवार के भीतर रहने के अपने ऊपर लगने वाले आरोपों से मुक्त होने की कोशिश की है। यह अलग बात है कि चुनाव के बावजूद यह तो तय ही हो गया है कि कांग्रेस पर गांधी परिवार का वर्चस्व कायम है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े रहे हैं)