Saturday, September 21"खबर जो असर करे"

कविता और लोकजीवन का मार्गदर्शन

– ह्रदय नारायण दीक्षित

जीवन और जगत को प्रकट करने के दो माध्यम हैं। पहला प्रत्यक्ष भौतिक जगत है। यह विज्ञान सिद्ध है। इसकी व्याख्या का मुख्य उपकरण बुद्धि है। तर्क बड़ा हथियार है। लेकिन तर्क पर्याप्त नहीं है। जीवन आनंद का अनुभव तर्क से नहीं होता। महाभारत के यक्ष प्रश्नों में युधिष्ठिर से यक्ष ने पूछा था- ‘जीवन मार्ग क्या है? युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा था-‘ ऋषि अनेक हैं। वेद वचन भिन्न-भिन्न हैं। धर्म का मूल तत्व स्पष्ट नहीं है। यह अति गहरी गुहा में है। तर्क की प्रतिष्ठा नहीं है। जीवन जगत के अध्ययन का यह विवरण बुद्धिगत है।’ युधिष्ठिर ने अंत में यक्ष से कहा-‘ महाजनो येन गता सपंथाः।’

महापुरुषों द्वारा बताया गया रास्ता ही सही मार्ग है। जीवन और संसार की व्याख्या का यह दृष्टिकोण भौतिक और संसारी है। लेकिन उसे समझने का दूसरा मार्ग भी है। यह मार्ग बौद्धिक नहीं है। अनुभूति और भावजगत इस दृष्टिकोण के प्रमुख उपकरण हैं। इसे प्रकट करने के लिए बौद्धिक दृष्टिकोण पर्याप्त नहीं है। ह्रदय इसका केन्द्र है। इसकी अभिव्यक्ति कविता में होती है। संभवतः इसीलिए प्राचीन दर्शन और जीवनशैली के संबंध में अब तक का सारा ज्ञान गीत और काव्य में है। गीतों का जन्मभाव से होता है।

विशाल वैदिक वांग्मय कविता में है। ऋग्वेद में कहा गया है कि ऋचाएं परम व्योम में रहती हैं। वही देवता भी निवास करते हैं। ऋचाएं वस्तुतः कविता हैं। वे जाग्रत बोध वाले लोगों के ह्रदय में प्रवेश करने की अभिलाषा रखती हैं। इस तरह से ऋचा और देवता परम व्योम में एक साथ हैं। मैं अपने भाव जगत में ऋचाओं और देवों के निवास वाले इस स्थान को देव गांव कहता हूं। गांव भावप्रवण होते हैं।

आश्चर्यजनक बात है कि ऋचाएं देवों के निकट रहती हैं। लेकिन वह धरती के जाग्रत बोध वाले लोगो के ह्रदय में उतरने की इच्छा रखती हैं। वे देवों के ह्रदय में उतरने की इच्छा नहींं रखतीं। उन्हें देव नहींं मनुष्य प्रिय हैं। ऋचा का भाव गहरा है। उन्हें भावुक ह्रदय से ही पहचाना जा सकता है। ऋग्वेद में इसी प्रसंग में कहते है,’ जो ऋचा का भाव नहींं समझते उनके लिए ऋचा का शब्द, अर्थ, ज्ञान कोई सहायता नहींं करता- ‘ऋचां किम करिष्यति’। यहां ऋचा स्वयं में किसी का भला बुरा नहीं करती। ऋचाएं कविता हैं। सारे ऋषि कवि हैं। सभी ऋषि कवि नहीं होते।

वैदिक साहित्य उत्कृष्ट कोटि का काव्य है। महाभारत और रामायण महाकाव्य कहे जाते हैं। रामचरितमानस और कम्ब की रामकथा कविता है। उपनिषद दर्शन भी कविता है। गीता साधारण गीत नहींं है। भारत का राष्ट्रगान जन गण मन रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा रचित कविता है। वंदे मातरम् बंकिम चंद्र के आनंद मठ उपन्यास में कविता है। यहां भारत माता का आकर्षक काव्य चित्र है। अथर्ववेद के ऋषि अथर्वा ने भूमि सूक्त लिखा था। समूचा भूमि सूक्त पृथ्वी कि स्तुति है और आनंद से भरीपूरी कविता है।

इसी के एक अंश में कहते हैं कि ये पृथ्वी माता सभी विचारों वाले और अनेक भाषाएं बोलने वाले लोगों को अपने ह्रदय में स्थान देती हैं । गीत काव्य के सृजन में भाव की महत्वपूर्ण भूमिका है। ऋग्वेद में ऋषि विश्वामित्र और नदी के बीच संवाद है। यह संवाद अनूठा है और काव्य रस से भरा पूरा है। इस संवाद में विश्वामित्र नदी के किनारे खड़े हैं। नदी से कहते हैं कि हम पार करना चाहते हैं। आप थोड़ा नीचे बहो। नदी कहती है कि हम उसी तरह नीचे हुए जाते हैं जैसे कोई मां अपने बच्चे को दूध पिलाने के लिए उसके ऊपर झुक जाती है।

नदियां बौद्धिक दृष्टि से भूगोल का भाग हैं। लेकिन काव्य में वे जीव मान माता हैं। नदियों को माता कहने की भाव अनुभूति ध्यान देने योग्य है। अथर्ववेद में नदी कि परिभाषा है-‘हे सरिताओं तुम कल-कल कर नाद करते हुए बहती हो। इसी नाद के कारण तुम्हारा नाम नदी पड़ा है।’ भाव जगत में धरती माता है और आकाश पिता है। वनस्पतियां देवता हैं। अग्नि देवता हैं। वायु देवता हैं। उपनिषद के ऋषि ने वायु को ब्रह्म कहा है। पत्थर भौतिक विज्ञान में कुछ विशेष पदार्थों के कणों के संयोजन हैं। लेकिन भाव जगत में यही पत्थर मूर्ति बनाए जाते हैं। उनकी पत्थर की देह वैज्ञानिक सत्य है। उनमे देवत्व की स्थापना काव्यात्मक भाव है। विज्ञान की धारणाएं प्रत्यक्ष हैं। भाव जगत को प्रकट करने वाली धारणा कविता में ही प्रकट होती है।

काव्य सृजन में सौंदर्य की महत्ता है। सौंदर्य अनुभूति आनंद देती है। लेकिन सौंदर्यबोध की व्याख्या वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संभव नहीं है। सौंदर्य वस्तु या पदार्थ नहीं है। यह हमारा और सभी मनुष्यों का आंतरिक भाव है। इसे शब्दों में प्रकट करना आसान नहीं है। सौंदर्य भावानुभूति है। भारतीय चिंतन में सौंदर्य को सत्य के साथ जोड़ा गया है। दोनों के साथ शिव को। सत्य, शिव और सुंदर कि त्रयी यहां के चिंतन का मूल आधार है। सुंदर होना पर्याप्त नहीं है। उसे सत्य भी होना चाहिए और कल्याणकारी भी। दुनिया के किसी भी देश में कविताएं धर्म और मानवीय व्यवहार की मार्गदर्शक नहीं हैं। लेकिन भारत में कविताएं हमारे लोकजीवन की मार्गदर्शी हैं। वेद कविता हैं। मार्गदर्शी हैं। उपनिषद कविता हैं। मार्गदर्शी हैं।

दोनों महाकाव्य कविता हैं और मार्गदर्शी हैं। भारत का संपूर्ण श्रेय कविता के रूप में प्रेय है। यहां प्रेम, भक्ति, ज्ञान, दर्शन सहित सारा ज्ञान कविता में ही गाया गया है। आकाश में मेघ आते हैं। विज्ञान में वे जलकणों का ही एक रूप है। लेकिन कवि की दृष्टि में वे आनंदित करते हैं। कालिदास के मेघदूत में बादल ही संदेशवाहक हैं। यह कालिदास के भाव जगत का सृजन है। वर्षा ऋतु में मेंढक टर्र-टर्र की आवाज करते हैं। ऋग्वेद की कविता में मेंढक गाते हुए बताए गए हैं। उनका गाना कवि की दृष्टि में वेदपाठी विद्वानों की याद दिलाता है।

तुलसीदास के रामचरितमानस में भी यही बात कही गई है-दादुर धुनी चहुं ओर सुहाई/वेद पढ़हि जनु बटु समुदाई। कोयल पक्षी है। भाव जगत में उसका बोलना गाना है। प्रकृति स्वयं में कविता है। भारत प्राकृतिक भौगोलिक संरचना है। भाव जगत में भारत माता है। एक छंद बद्ध कविता। यहां विशेष प्रकार की विष्ववरेण्य संस्कृति है। यह एक महान राष्ट्र है। भारत आसमान से उतरी हुई ऋचा-कविता है और उपास्य है।

(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)