Friday, November 22"खबर जो असर करे"

सभ्यतागत त्रासदी का एकात्म मानव दर्शन

– रजनीश कुमार शुक्ल

एकात्म मानववाद जैसी विचारधारा और अंत्योदय के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय की आज (25 सितंबर) जयंती है। उनका एकात्म मानव दर्शन मनुष्य को केंद्र में रखकर के संपूर्ण विश्व व्यवस्था का और उससे आगे बढ़ते हुए ब्रह्मांड व्यवस्था का मूल्याधिष्ठित किंतु व्यावहारिक विश्लेषण एवं दार्शनिकीकरण है। हम जानते हैं कि दर्शन के रूप में इसका सैद्धांतीकरण 1965 में आयोजित भारतीय जनसंघ के कालीकट अधिवेशन में हुआ था, जिसमें भारतीय जनसंघ के नीति प्रारूप के रूप में इस पर चर्चा की गई। चर्चा के अनंतर इसे भारतीय जनसंघ के दिशा निर्देशक सिद्धांत और दार्शनिक अधिष्ठान के रूप में स्वीकार किया गया। इसके तत्काल बाद मुंबई में देशभर के भारतीय जन संघ के कार्यकर्ताओं के समक्ष पं.दीनदयाल उपाध्याय जी ने एकात्म मानव दर्शन को विस्तार से प्रस्तुत किया। एकात्म का तात्पर्य एक ही होना है। एक ही प्रकार की चेतना , बुद्धि और एक ही प्रकार की चिंतन प्रक्रिया का होना है। एकात्म मानव दर्शन का जो तत्वमीमांसीय अधिष्ठान है, वह अधिष्ठान, दीनदयाल जी ने शंकराचार्य पर जो पुस्तक लिखी थी उसमें ही बीज रूप में था। एकात्म यानि अद्वैत की दृष्टि अर्थात मैं और तुम ये दो नहीं हैं।

पश्चिम में उपजी हुई समकालीन विचारधाराओं को यह पहला भारतीय प्रत्युत्तर है। उपाध्याय जी की दृष्टि से विचार करेंगे तो मनुष्य एक विशिष्ट रचना है। ये शरीर है,मन है, बुद्धि है और आत्मा है। इस प्रकार यह एक फोर डायमेंशनल निर्मिति है। जिसमें शरीर या मनुष्य की ज्ञानेंद्रियां, मन और बुद्धि यह ज्ञात हो सकने वाले तथ्य हैं और इनसे परे जो आत्मा है वह ज्ञाता है। अभी तक यूरोप की जो पूरी विचार सरणि है वह त्रिआयामी जगत से अधिक का विचार नहीं कर सकती है। एकात्म मानववाद दर्शन की वह प्रणाली है जो त्रिआयामी जगत को अतिक्रांत करती हुई, लंबाई, चौड़ाई, मोटाई के संसार से बाहर जाते हुए चौथे आयाम की बात करती है। साम्यवाद और पूंजीवाद के जो विविध पर्याय दुनिया भर में विकसित हुए थे, उन विविध पर्यायों में मात्र उत्पादन और वितरण को केन्द्र में रखकर विचार किया गया था। दीनदयाल जी बड़ी स्पष्टता के साथ कहते हैं कि दोनों एकांगी हैं।

दोनों ही मनुष्यों और समाज के एक ही हिस्से का विचार कर पाते हैं। एक जो मनुष्य जाति के लिए उत्पादन का विचार कर सकने वाला या उसकी अधिकारिता का विचार कर सकने वाला पूंजीवादी दृष्टिकोण है तो दूसरा मनुष्य के लिए वितरण की व्यवस्था और मनुष्य के सामाजिक उत्तरदायित्व इसका विचार कर सकने वाला समाजवाद, वैज्ञानिक समाजवाद, साम्यवाद या मार्क्सवाद के विविध पर्यायों से दुनियाभर में विकसित हुआ समाज केंद्रित विचार है। केवल उत्पादन या केवल वितरण मनुष्य का जीवन नहीं है। यदि केवल उत्पादन करना, उत्पादन का वितरण करना और उत्पादन का उपयोग करना यही मनुष्य का लक्ष्य है तो मनुष्य और पशु के बीच का भेद करना संभव नहीं है।

यह वह प्रस्थान बिंदु है जहां दीनदयाल जी भारत की अनादि सांस्कृतिक परंपरा पर आधारित एक दर्शन की प्रस्तुति करते हैं। एक समाज दर्शन की, एक व्यावहारिक दर्शन की प्रस्तुति करते हैं। ऐसे व्यवहारिक दर्शन की प्रस्तुति करते हैं, जो जीवन के प्रश्नों का समाधान करते हुए, राज्य के व्यवहार के प्रश्नों का समाधान करते हुए, राज्य के लिए दिशा-निर्देशक तत्व के रूप में प्रस्तुत होते हुए, इस जीवन से परे लोकोत्तर जीवन के भी समाधान का रास्ता निकलता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दीनदयाल उपाध्याय जी वह पहले दार्शनिक हैं जो मनुष्य को सही अर्थ में परिभाषित करने की कोशिश करते हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय एकात्म मानववाद के संबंध में अपने प्रथम व्याख्यान में एकात्म मानववाद को धार्मिक मनुष्य, धर्माधिष्ठित मनुष्य,धर्मनियामित मनुष्य के रूप में प्रतिस्थापित करते हैं। वह धर्म ही है जो मनुष्य को विशिष्ट बनाता है। उपाध्याय जी एक विशिष्ट प्रकार के दर्शन की प्रस्तुति करते हैं।

यह विशिष्ट प्रकार का दर्शन समग्रता में सोचना है, सर्वमयता में देखना है। बांट-बांट कर देखना नहीं है। टुकड़े -टुकड़े में देखना नहीं है। एक बड़े लक्ष्य के साथ समाज की निर्मिति करनी है, राज्य की निर्मिति करनी है, राज्य के आगे जाकर विश्व व्यवस्था की निर्मित करनी है तो उसके लिए उपाध्याय जी विश्व के नक्शे के टुकड़ों को सामने रखकर कहते थे कि इसको जोड़ो। पूरी दुनिया से परिचय तो किसी का नहीं है, इसलिए अपरिचित मनुष्य को उसको जोड़ने में कठिनाई होती है। क्योंकि नक्शा प्रतीक मात्र है। उसे संपूर्णता में मनुष्य न देख सकता है ना अनुभव कर सकता है। इसलिए वह उसे नहीं जोड़ सकता। लेकिन यदि उसी टुकड़े को उल्टा किया जाए और एक मनुष्य का चित्र टुकड़े-टुकड़े में हो तो मनुष्य मनुष्य को जानता है, मनुष्य मनुष्य से परिचित है, उसके अंगों से परिचित है इसलिए वह मनुष्य को जोड़ लेता है। मनुष्य को जोड़ने से विश्व तक और ब्रह्मांड तक जोड़ा जा सकता है। यह सहज रास्ता है।

एकात्म मानव दर्शन का लक्ष्य मनुष्य को जोड़ना है, मनुष्य को निर्मित करना है, मनुष्य को ठीक ढंग से खड़ा करना है। एक निर्मित मनुष्य, एक सुसंस्कृत मनुष्य, एक सुशिक्षित मनुष्य, एक जिम्मेदार मनुष्य जब निर्मित होता है तो विश्व व्यवस्था निर्मित होती है। एकात्म मानववाद वह दृष्टि है जिसके केन्द्र में मनुष्य है, इसलिए एकात्म मानववाद वस्तुत: धर्म आधारित दर्शन है। मनुष्य का विचार करना ही धर्म का विचार करना है। लेकिन उपाध्याय जी बार-बार धर्म आधारित दर्शन, धर्म आधारित समाज, धर्म आधारित व्यक्ति, धर्म आधारित राज्य व्यवस्था की चर्चा में करते हैं तो सावधानी भी बरतते हैं। जब वह धर्म और धर्म आधारित समाज की बात करते हैं तो वह रेलिजियस कम्युनिटी की बात नहीं करते हैं।

एकात्म मानव दर्शन मनुष्य की मानसिक आवश्यकताओं की, मनुष्य की बौद्धिक आवश्यकता की और मनुष्य की आत्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति का जीवन और जगत के अंतर्संबंधों के परिप्रेक्ष्य में सांगोपांग विचार है। एकात्म मानववाद वस्तुत: उस कालखंड में और आज भी जो दो मूल पाश्चत्य विचार हैं जिनको दक्षिण पंथ और वामपंथ के नाम से जाना जाता है, लेफ्ट- राइट के नाम से जाना जाता है, इन सबको शमित करते हुए, प्राचीन जीवन मूल्यों पर आधारित अधुनातन समाज और भविष्य के मानव जीवन के लिए, एक दार्शनिक अवधारणा की निर्मिति करते है, जो वस्तुत: मनुष्य, मनुष्य के समाज, मनुष्य के राष्ट्र इन सबका सम्यक विचार करते हुए सबके लिए सुख सृजित करने की व्यवस्था का प्रतिपादन करता है। यह त्याग पर आधारित है लेकिन उपभोग का निषेध करके नहीं।

‘ईशावास्यं इदं सर्वं, यत्किंच जगत्यांजगत्, तेन त्यक्तेन भुंजीथा, मा गृध: कस्यस्विद्धनम्’। इस संसार में जो कुछ है सब कुछ ईश्वर की अभिव्यक्ति है। सब ईश्वर निर्मित है। इसलिए मनुष्य सब तुम्हारे लिए है। लेकिन तुम्हें बेलगाम उपभोग का अधिकार नहीं है। अपितु त्याग और नैतिकता से नियंत्रित होकर उपभोग करना है। यही धर्म है। इसी धर्म को व्यक्ति धर्म, समाज धर्म, राजधर्म, राष्ट्रधर्म, विश्वधर्म के रूप में समझा जा सकता है। एकात्म मानव दर्शन का तात्पर्य मनुष्य का एकात्म विचार करना है। वह बंटा हुआ नहीं है। वह टुकड़े- टुकड़े में नहीं है। अपितु सब रूप में वह एकरस है, एक प्रकार है,इस दृष्टि को प्रकाशित करना एकात्म मानव दर्शन है। एकात्म मानव दर्शन केवल राजनैतिक व्यवस्था नहीं है। एकात्म मानव दर्शन जनसंघ का नीति सिद्धांत तो था, लेकिन यह जनसंघ का राजनैतिक एजेंडा नहीं था। अपितु जनसंघ के माध्यम से देश के लोगों के लिए, दुनिया के लोगों के लिए इसको प्रस्तावित करते हुए उपाध्याय जी ने एकात्म मानव दर्शन के रूप में एक ऐसी दार्शनिक दृष्टि प्रस्तुत की है जो ममतामूलक समता, त्यागमूलक उपभोग, नैतिकतापरक अंतरवैयक्तिकता, पारस्पारिकतापरक समाज और उत्तरदायित्वपरक अधिकार के मानव जीवन का सृजन करने का सनातन प्रस्ताव है।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के निवर्तमान कुलपति एवं प्रख्यात दर्शनशास्त्री हैं।)