– गिरीश्वर मिश्र
नए के प्रति आकर्षण मनुष्य की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति है। ‘नया’ अर्थात जो पहले से भिन्न है। मौलिक है। अपनी अलग पहचान बनाता है। यह भिन्नता सृजनात्मकता का प्राण कही जाती है। उसी कृति या आविष्कार को प्रतिष्ठा मिलती है, पुरस्कार मिलता है जिसमें कुछ नयापन होता है, जो पुरानी घिसी-पिटी लीक पर न होकर उससे हट कर हो । हालांकि, एक सच यह भी है कि अक्सर नए को अपनी प्रतिष्ठा अर्जित करना आसान नहीं होता, उसे पुराने से टक्कर लेनी पड़ती है और प्रतिरोध की पीड़ा और उपेक्षा भी सहनी पड़ता है । कभी ऐसे ही क्षण में संस्कृत के शीर्षस्थ कवि कालिदास को यह कहना पड़ा कि ‘ पुराना सब अच्छा है और नया ख़राब है’ ऐसा तो मूढ़ और अविवेकी लोग ही सोचते हैं जो दूसरों की कही-कहाई बात सुन कर फैसला लेते हैं परंतु साधु या विवेकसम्पन्न लोग सोच-विचार कर और परख कर ही अच्छाई या बुराई का निश्चय करते हैं । नए के प्रति आकर्षण का एक पहलू यह भी है कि लगातार एक सा अनुभव हमारे मन-मस्तिष्क को उबा देने वाला होता है। ऐसे में नीरस होते जाने या उकता जाने से थकान और गतिहीनता का तनाव भी पैदा होने लगता है जो मानसिक उलझन और अस्वास्थ्य का कारण बनता है।
चलने और आगे बढ़ते रहने का अहसास अपने होने या कहें जीवन-स्पंदन का प्रमाण देता रहता है। चलना जीने का पर्याय होता है और मन के लिए भरोसा देने वाला होता है। चलने का अर्थ श्रम भी है जिसके बिना कुछ भी नहीं होता। इसी अर्थ में ऐतरेय ब्राह्मण मेम एक प्रसंग में कहा गया है कि जो श्रम करने से थकता नहीं है, उसे ही श्री अर्थात समृद्धि मिलती है। यही सोच कर निर्देश दिया गया कि चरैवेति ! चरैवेति ! यानी चलते रहो, चलते रह। चलने वाले को ही मधु मिलता है- चरन् वै मधु विन्दति ।
जो भी हो नयेपन की हर किसी को तलाश रहती है। काव्य जगत में तो प्रसिद्धि ही है कि हर क्षण नया होते रहना ही रमणीयता का स्वरूप है – क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयताया:। नया ही रमणीय होता है इसलिए नया सबको प्रिय लगता है। आज की दुनिया में देश-विदेश चारों ओर वस्त्र आभूषण का फैशन हो या ज्ञान-विज्ञान का कोई क्षेत्र या फिर टेक्नोलोजी और उपकरण की दुनिया हर जगह नए की ही धूम मची रहती है। कोई पुराना नहीं रहना चाहता और नए को अपनाने के लिए मन में उत्सुकता रहती है और उसे अपनाने की उमंग होती है । अपटुडेट या अद्यतन बने रहना सभ्यता का तकाजा हो चुका है। पुराने खयाल दकियानूसी और कालातीत होने से अप्रासंगिक ठहरा दिए जाते हैं। चूंकि काल का पहिया आगे ही चलता है इसलिए हर किसी पर नित्य नए बने रहने का दबाव होता है।
भविष्य पर्दे के पीछे रहता है इसलिए अज्ञात और अनागत का आकर्षण सदैव रहता है। उससे रूबरू होने का अनुभव उत्साह और उत्सव का क्षण बन जाता है । ऐसे में एक किस्म का उन्माद का भाव आता है जो नया वर्ष मनाते समय अक्सर दिखता है विशेषकर युवा वर्ग में जिसके अतिरेक के कभी कभी घातक परिणाम भी हो जाते हैं। नया वर्ष का अवसर उनके लिए भविष्य की एक खिड़की या एक किस्म के समय के पुल जैसा होता है जब वर्तमान में रहते हुए (मानसिक स्तर पर) भविष्य में छलांग लगाते हैं। अक्सर सब लोग खुद को सम्बोधित करते हैं । अपने को टटोलते हुए खोने-पाने का हिसाब भी लगाते हैं। साल भर जिन उपलब्धियों और विफलताओं का अनुभव करते रहे हैं वे सब मुक्त करने वाले और बांधने वाले होते हैं । पर वे ठहरे अतीत के अनुभव जिनसे अपना रिश्ता परिभाषित करना हमारा काम होता है। उनसे बंधना या उन्हीं में अटक कर ठहर जाना निरर्थक है। काल के पहिए को पीछे घुमाने की जगह अतीत के अनुभव का लाभ लेते हुए नए सृजन की ओर आगे बढ़ने का शुभ संकल्प ही आगामी जीवन में पाथेय हो सकता है।
जीवन के नाटक में तो नव वर्ष का अवसर उस नाटक के एक नए अंक की शुरुआत है जिसका कथानक और घटनाक्रम हमारी तैयारी, साधन और समर्थन पर निर्भर करेगा। दरअसल जो क्षण कभी भी हमारे हाथ में रहता है वह सिर्फ और सिर्फ वर्तमान ही होता है उसे अपनी नयी इबारत लिखनी होगी। रचनाशीलता से अवसर में तबदील करने का दायित्व हमारा ही बनता है। युवा भारत के लिए यह वर्ष गति, लय और स्वर की दृष्टि से समृद्धिशाली हो । निराला जी के साथ हम भी यही कहेंगे-नव गति, नव लय,ताल-छन्द नव/ नवल कंठ, नव जलद-मन्द्र रव/ नव नभ के नव विहग बृंद को/ नव पर, नव स्वर दे!/ वर दे, वीणा वादिनि वर दे।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)