– योगेश कुमार गोयल
आजादी के परवाने महान क्रांतिकारी नेताजी सुभाष चंद्र बोस दूसरों के दुख-दर्द को अपना दुख-दर्द समझने वाले संवेदनशील शख्स तो थे ही, साथ ही एक वीर सैनिक, एक महान सेनापति और राजनीति के अद्भुत खिलाड़ी भी थे। उनसे जीवन से जुड़े अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जिनसे उनकी उदारता, मित्रता, संवेदनशीलता, दूरदर्शिता स्पष्ट परिलक्षित होती है। भारत की आजादी के संघर्ष में उनके नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज के योगदान को सदैव सराहा जाता है लेकिन एक बार उनकी इसी फौज में एक साम्प्रदायिक विवाद ने जन्म ले लिया था। दरअसल फौज के मुस्लिम भाईयों का विरोध था कि मैस में सूअर का मांस नहीं बनेगा जबकि ‘आजाद हिन्द फौज’ के हिन्दू साथी गाय का मांस इस्तेमाल करने का प्रखर विरोध कर रहे थे। विकट समस्या यह थी कि दोनों में से कोई भी पक्ष एक-दूसरे की बात मानने या समझने को तैयार नहीं था।
विवाद बढ़ने पर जब यह सारा वाकया नेताजी के समक्ष आया तो उन्होंने सारे प्रकरण को गहराई से समझते हुए अगले दिन इस पर अपना फैसला सुनाने को कहा। चूंकि वे फौज के सर्वेसर्वा थे तो स्पष्ट था कि उनका निर्णय ही अंतिम निर्णय होना था। अंततः दूरदर्शिता का परिचय देते हुए उन्होंने अगले दिन ऐसा निर्णय सुनाया कि हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच पनपा विवाद स्वतः ही खत्म हो गया। अपने फैसले में उन्होंने कहा कि भविष्य में ‘आजाद हिन्द फौज’ की मैस में न तो गाय का मांस पकेगा, न ही सूअर का।
जब सुभाष स्कूल में पढ़ने जाया करते थे, तब उनके स्कूल के पास ही एक असहाय वृद्ध महिला रहती थी, जो अपने लिए भोजन बनाने में भी असमर्थ थी। सुभाष से उसका दुख देखा नहीं गया और प्रतिदिन स्कूल में वे लंच के लिए अपना जो टिफिन लेकर जाते थे, उसमें से आधा उन्होंने उस वृद्ध महिला को देना शुरू कर दिया। एक दिन उन्होंने देखा कि वह महिला बहुत बीमार है। करीब 10 दिनों तक उन्होंने उस वृद्ध महिला की सेवा कर उसे ठीक कर दिया। इसी प्रकार जब वे कॉलेज जाया करते थे, उन दिनों उनके घर के ही सामने एक वृद्ध भिखारिन रहती थी। फटे-पुराने चीथड़ों में उसे भीख मांगते देख सुभाष का हृदय रोजाना यह सोचकर दहल उठता कि कैसे यह महिला सर्दी हो या बरसात अथवा तूफान या कड़कती धूप, खुले में बैठकर भीख मांगती है और फिर भी उसे दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती।
यह सब देखकर उनका हृदय ग्लानि से भर उठता। घर से उनका कॉलेज करीब तीन किलोमीटर दूर था। आखिकार प्रतिदिन बस किराये और जेब खर्च के लिए उन्हें जो भी पैसे मिलते, उन्होंने वो बचाने शुरू कर दिए और पैदल ही कॉलेज जाना शुरू कर दिया। इस प्रकार प्रतिदिन अपनी बचत के पैसे उन्होंने जीवनयापन के लिए उस बूढ़ी भिखारिन को देने शुरू कर दिए।
सुभाष चंद्र बोस को लोगों का दुख-दर्द बर्दाश्त नहीं होता था। ऐसा ही एक वाकया उन दिनों का है, जब बंगाल में भारी बाढ़ आई हुई थी और गांव के गांव बाढ़ के पानी में समा गए थे। जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। सुभाष तब कॉलेज में पढ़ते थे। उन्होंने अपने कुछ सहपाठियों के साथ मिलकर बाढ़ पीड़ितों के लिए राहत सामग्री एकत्रित करने का निश्चय किया और जी-जान से बाढ़ पीडि़तों की मदद में जुट गए। उसी दौरान एक दिन उनके पिता ने उनसे कहा कि बेटा, मानव सेवा तो ठीक है पर कभी अपने घर की ओर भी थोड़ा ध्यान दिया करो, गांव में ही मां दुर्गा की विशाल पूजा का आयोजन किया जा रहा है, जहां दूसरे लोगों के साथ तुम्हारा रहना बेहद जरूरी है, इसलिए तुम्हें मेरे साथ चलना होगा। इस पर सुभाष ने पिताजी से कहा कि आप सब लोग गांव जाकर मां दुर्गा की पूजा करें, वह उनके साथ नहीं चल सकता क्योंकि बाढ़ ने जो विनाश किया है, ऐसे में उससे लोगों का दर्द बर्दाश्त नहीं होता और ऐसे दीन-दुखियों की सेवा करके उसे दुर्गा मां की पूजा का पुण्य स्वतः ही मिल जाएगा। समाज के दीन-दुखियों के प्रति बेटे के इस तरह के भाव देखकर उनके पिता भाव-विभोर हो उठे और उन्होंने सुभाष को सीने से लगाते हुए कहा कि बेटा, मां दुर्गा की सच्ची पूजा तो वास्तव में तुम कर रहे हो।
सुभाष चंद्र बोस जब कॉलेज में पढ़ते थे, उस समय उनका एक दोस्त था, जो बंगाल की ही किसी छोटी जाति से संबंध रखता था। हॉस्टल में रहते हुए उसे एक बार चेचक हो गया। छूत की बीमारी होने के कारण हॉस्टल के सभी साथी उसे उसके हाल पर अकेला छोड़ गए लेकिन सुभाष को यह बात पता चली तो उनसे यह सब देखा नहीं गया। वे उसके पास पहुंचे और स्वयं उसका इलाज शुरू कराया तथा प्रतिदिन उसे देखने जाने लगे। जब सुभाष के पिता को यह सब पता चला तो उन्होंने सुभाष को समझाया कि यह छूत की बीमारी है और तुम्हें भी लग सकती है, इसलिए उस लड़के से दूर रहा करो किन्तु सुभाष ने जवाब दिया कि उन्हें पता है कि यह छूत की बीमारी है किन्तु संकट की घड़ी में मित्र ही मित्र के काम आता है। जरूरत पड़ने पर वह अपने निर्धन और बेसहारा मित्र की मदद नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा? बेटे से मित्रता की यह परिभाषा सुन पिता बड़े खुश हुए और सुभाष ने अपने दोस्त का चेचक का इलाज पूरा कराकर उसे स्वस्थ कर दिया। ऐसे थे विलक्षण व्यक्तित्व के धनी महान क्रांतिकारी नेताजी सुभाष चंद्र बोस।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)