– सुरेन्द्र किशोरी
23 जनवरी, 1897 को ओडिशा के कटक में वकील जानकीनाथ बोस की पत्नी प्रभावती की गोद में नौवीं संतान के रूप में जब बालक की किलकारी गूंजी तो किसी को कहां पता था कि वह एक दिन न केवल मां भारती को स्वतंत्र कराने वाले वीर सपूतों के अग्रणी पंक्ति में शामिल होगा और नेताजी के रूप में मशहूर हो जाएगा। लोगों के खून में जोश भरने के लिए उनका नारा- ‘ तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ भारत का राष्ट्रीय नारा बन जाएगा। बचपन में ही बोस ने यह जान लिया था कि जब तक सभी भारतवासी एकजुट होकर अंग्रेजों का विरोध नहीं करेंगे, तब तक हमारे देश को उनकी गुलामी से मुक्ति नहीं मिल सकेगी। उनके मन में अंग्रेजों के प्रति तीव्र घृणा और देशवासियों के प्रति बड़ा प्रेम था। किशोरावस्था में ही सुभाषचंद्र बोस की मनोवृत्ति का झुकाव सांसारिक धन, वैभव, पदवी के बजाय जीवन की वास्तविकता को जानने और अपनी शक्ति तथा सामर्थ्य का उपयोग देश की प्रगति के लिए करने की तरफ होने लगा। 1920 में प्रशासनिक परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, लेकिन स्वामी विवेकानंद के विचारों से प्रभावित होकर 1921 में भारत वापस लौट कर स्वतंत्रता संग्राम की अग्रिम पंक्ति में शामिल हो गए।
उनके मित्र ‘संन्यासी’ के नाम से पुकारने लगे थे तो इससे एक प्रकार की प्रसन्नता ही होती थी। इसी दौर में नेताजी ने अपने जीवन के संबंध में विचार करते हुए एक पत्र में लिखा था कि ”मैं दिन पर दिन अनुभव करता जाता हूं कि हमारे जीवन का एक विशेष लक्ष्य या उद्देश्य है और उसी के लिए हम इस संसार में आए हैं। लोग तो इसके संबंध में भला-बुरा कहते ही रहते हैं, लेकिन मैंने निश्चय कर लिया है कि प्रचलित विचारधारा में कभी नहीं बहूंगा। अपनी सूक्ष्म अंतरात्मा में यह अनुभव करता हूं कि मेरे ऊपर ऐसी भावना का प्रभाव नहीं पड़ सकता यदि संसार के व्यवहार से प्रभावित होकर मैं अपने मन में दुःख, निराशा आदि का अनुभव करूं तो समझूंगा कि यह मेरी दुर्बलता है।
लेकिन जिसकी दृष्टि आकाश की तरफ लगी है, उसे इस बात का कुछ पता नहीं रहता कि सामने पहाड़ है या कुआं। इसी प्रकार जिसका लक्ष्य एकमात्र अपने उद्देश्य और आदर्श की तरफ होता है, उसका अन्य विषयों की तरफ ध्यान नहीं जाता। कुछ भी हो, अब मुझे यह अनुभव होता है कि अपना मनुष्यत्व सार्थक करने के लिए भूतकाल को साकार, वर्तमान काल को उन्नत और भविष्य काल का निर्माण करना चाहिए। मैं प्राचीनकाल के समस्त इतिहास और संसार की समस्त सभ्यताओं का अध्ययन करूंगा। मुझे अपना अध्ययन भी करना चाहिए, अपने चारों तरफ की दुनिया को अच्छी तरह समझना चाहिए। मुझे भारत और दुनिया की वर्तमान हालात की पूरी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए तथा इसके लिए विदेशों की यात्रा करना आवश्यक है।”
पत्र की अगली पंक्ति थी ”मुझे भविष्य संदेशवाहक होना है तो इसके लिए प्रगति के नियमों का पता लगाना आवश्यक है। पूर्वी और पाश्चात्य दोनों सभ्यताओं की प्रवृत्तियों को समझना जरूरी है, जिससे मनुष्य जाति के भावी लक्ष्य को निर्धारित किया जा सके। इस संदर्भ में जीवन दर्शन का अध्ययन और मनन करना भी सहायक होगा। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमको अपना कार्य भारत से ही आरंभ करना चाहिए। क्या यह एक महान उद्देश्य नहीं है, निस्संदेह इस विचार को कार्यान्वित करना बड़ा कठिन है, पर इसकी चिंता नहीं। हम सब मिलकर आगे बढ़ेंगे तो सिद्धि प्राप्त होगी ही। हम अपनी दृष्टि को जितना अधिक ऊपर की तरफ उठाएंगे, उतना ही हम भूतकाल के कटु अनुभवों को भूलते जाएंगे और तब भविष्य काल पूर्ण प्रकाशयुक्त रूप में हमारे सामने प्रकट होगा।”
इससे सुभाषचंद्र बोस की मानसिक अवस्था का बहुत कुछ पता चल जाता है। उनको छोटी उम्र से ही अनुभव हो गया था कि मानव जीवन केवल खाने-पीने और भोग करने के लिए नहीं हैं, वरन भगवान ने हम सबको इस संसार में किसी उच्च आदर्श की पूर्ति के लिए भेजा है। प्रायः कहा जाता है कि मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, लेकिन यह सिद्धांत उसी समय चरितार्थ हो सकता है, जब हम धन-वैभव और सुख-सुविधा प्राप्त करने की सामान्य मनोवृत्ति को त्यागकर अपनी निगाह ऊपर की तरफ उठाते हैं। जब हम परमात्मा के आदेश का पालन करने के लिए अपने संकीर्ण स्वार्थ को छोड़कर त्याग और तपस्या द्वारा मानव-प्रगति में सहयोग देने के लिए आगे बढ़ेंगे, तभी हम इस स्वर्णिम भविष्य को प्राप्त करने में सफल मनोरथ हो सकेंगे।
इनका मनन करते-करते जब अपने देश और देशवासियों की स्थिति को समझा तो फिर एक अन्य पत्र में लिखा था कि ”जीवन सरिता में दो परस्पर विरोधी स्रोत बहते रहते हैं। एक स्रोत कल्याण की तरफ ले जाता है और दूसरा स्रोत नीचे की तरफ बहा ले जाता है। इन दोनों के साथ संघर्ष करते रहना ही जीवन का पुरुषार्थ है।” नेताजी के लिए स्वाधीनता जीवन-मरण का प्रश्न बन गया था। बस यही श्रद्धा, यही आत्मविश्वास जिसमें ध्वनित हो वही व्यक्ति वास्तविक सृजक है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने पूर्ण स्वाधीनता को राष्ट्र के युवाओं के सामने एक मिशन के रूप में प्रस्तुत किया।
उन्होंने युवाओं का आह्वान किया था कि जो इस मिशन में आस्था रखता है वह सच्चा भारतवासी है। उनके इसी आह्वान पर ध्वजा उठाए आजादी के दीवानों की आजाद हिन्द फौज बन गई। उन्होंने कहा था इस समय भारतवर्ष एक नए जीवन में प्रवेश कर रहा है। तमोमई अंधेरी रात का अवसान होकर मंगलमई उषा का प्रकाश भारतीय गगन को सुशोभित कर रहा है। इस दृश्य को इस समय कौन भारतीय युवक नहीं देख और अनुभव नहीं कर रहा है, हम लोग धन्य हैं, जिन्होंने इस समय जन्म लिया है और वर्तमान यज्ञ की पूर्ति के लिए समिधाएं एकत्रित करने का सौभाग्य प्राप्त किया है। एक बार नेत्र खोलकर देखो कि पूर्वी आकाश में नवीन सूर्योदय की कैसी शोभा हो रही है, चारों तरफ भविष्यद्रष्टा महापुरुष उच्च स्वर से शंखनाद करके आगामी प्रकाशयुक्त भविष्य का आह्वान कर रहे हैं। क्या तुम इसमें भाग लेने के लिए अपनी अंतरात्मा का स्वर नहीं मिलाओगे।
सुभाषचंद्र बोस के यह उद्गार निश्चय ही उनकी अंतरात्मा से निकल रहे थे। तभी आगे चलकर उन्होंने देश के उद्धार के लिए इतना त्याग और साहसपूर्ण कदम उठाया, जिससे आज तक उनका यश देशभर में फैल रहा है। अपनी मातृभूमि और स्वदेश-बांधवों की कष्टपूर्ण अवस्था उनको उसी समय व्याकुल कर रही थी और उनका मन बार-बार कुछ करने के लिए उद्वेलित हो रहा था। पर वह समझते थे कि पूरी तैयारी किए बगैर, अपने को योग्य और शक्तिशाली बनाए, बिना हम कोई बड़ा काम नहीं कर सकते। इसीलिए आरंभ में ही उन्होंने संसार भर के इतिहास और सभ्यताओं के उत्थान- पतन के कारणों का अध्ययन और मनन करने का निश्चय किया। वह जैसे-जैसे इस मार्ग पर आगे बढ़ते गए, उनको अपने देश की वास्तविक दशा, उसके पतन के कारण और ऊंचा उठने के लिए भावी कार्यक्रम का ज्ञान होता गया। इससे उनकी अंतरात्मा निरंतर देश और समाज के प्रति अपना कर्त्तव्यपालन करने और अपने स्वार्थ का बलिदान करने के लिए छटपटाने लगी।
उन्होंने अपने भाषण में कहा था विचार व्यक्ति को कार्य करने के लिए धरातल प्रदान करता है। उन्नतिशील, शक्तिशाली जाति और पीढ़ी की उत्पत्ति के लिए हमें बेहतर विचार वाले पथ का अवलंबन करना होगा, क्योंकि जब विचार महान, साहसपूर्ण और राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत होंगे तभी हमारा संदेश अंतिम व्यक्ति तक पहुंचेगा। उनके विचार विश्वव्यापी थे, नेताजी समग्र मानव समाज को उदार बनाने के लिए प्रत्येक जाति को विकसित बनाना चाहते थे। उनका स्पष्ट मानना था कि जो जाति उन्नति करना नहीं चाहती, विश्व रंगमंच पर विशिष्टता पाना नहीं चाहती, उसे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है। नेताजी भारत के एक ऐसे सच्चे वीर नायक थे, जिन्होंने अपनी मातृभूमि के लिए अपना घर और आराम हमेशा के लिए छोड़ दिया। असंख्य युवाओं को अपनी वीरता, साहस और देशभक्ति से प्रेरित किया।
सुभाषचंद्र बोस कार्रवाई में विश्वास करते थे, खुले तौर पर देश के युवाओं को एक साथ आने और स्वतंत्रता के लिए लड़ने का आह्वान करते थे। चार जुलाई 1944 में उन्होंने अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था ”तुम मुझे खून दो मैं तुझे आजादी दूंगा।” इस नारे ने युवाओं के मन में आत्मविश्वास का शंखनाद कर दिया। इस मंत्र ने भारतवासियों के मन में ऐसा जोश भरा की अंततः 1947 में अंग्रेजों को यह देश छोड़कर भागना पड़ा। स्वाधीनता संग्राम के महायज्ञ में प्रमुख पुरोहित की भूमिका निभाने वाले सुभाषचंद्र बोस ने ”किसी राष्ट्र के लिए स्वाधीनता सर्वोपरि है” मूलमंत्र को शैशव और नवयुवाओं की नसों में प्रवाहित करने, तरुणों की सोई आत्मा को जगाकर देशव्यापी आंदोलन और युवा वर्ग की शौर्य शक्ति उद्भासित कर राष्ट्र के युवकों के लिए आजादी को आत्मप्रतिष्ठा का प्रश्न बना दिया था।
स्वाधीनता का अर्थ केवल अंग्रेजी शासन और राष्ट्रीय बंधन से मुक्ति नहीं, बल्कि आर्थिक समानता, जाति, भेद, सामाजिक अविचार का निराकरण, सांप्रदायिक और संकीर्णता त्यागने का विचार है। आज एक बार फिर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की जयंती मनाई जा रही है तो आइए हम सब प्रण करें कि उनके विचारों और संस्कारों को आत्मसात कर, अपने समाज और अपने राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे। यही उस राष्ट्रपुरुष के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)