– मुकुंद
नेपाल में संघीय और प्रांतीय विधानसभा चुनाव के लिए मतदान रविवार शाम पांच बजे थम गया। नेपाल के चुनाव आयोग ने आखिरी परिणाम आठ दिन में आने का भरोसा जताया है। नेपाल में 1990 में लोकतंत्र का सूरज उगा था। इसके बाद साल 2008 में राजशाही का सफाया हो गया। यह विडंबना देखिए कि लोकतंत्र स्थापित होने के 32 साल में यहां 32 सरकारें रही हैं। 2008 के बाद से अब तक पिछले 14 साल में 10 सरकारें आई-गई हैं। यह लोकतंत्र की विफलता की कहानी है। साल-दर-साल बदलते गठबंधनों और सरकारों से नेपाल के लोगों की राजनीतिक व्यवस्था में आस्था कम हुई है। देश के आर्थिक हालात भी बहुत अच्छे नहीं हैं।
इस बार चुनाव मैदान में प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व में सत्ताधारी गठबंधन है। इस गठबंधन में उनकी पार्टी नेपाली कांग्रेस के अलावा पुष्प कमल दहाल प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल माओवादी सेंटर (सीपीएन-एमसी) और माधव कुमार नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल- यूनिफाइड सोश्लिस्ट (सीपीएन-यूएस) हैं। पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के नेतृत्व में विपक्ष का गठबंधन है। इसमें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-यूनाइटेड मार्कसिस्ट (सीपीएन- यूएमएल) के साथ राजशाही समर्थक और हिंदूवादी पार्टी राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (आरपीपी) है।
नेपाल में पुराने राजनेताओं पर लगे भ्रष्टाचार और अव्यवस्था के आरोपों की वजह से छोटी पार्टियां पनपी हैं। इस बार कई स्वतंत्र उम्मीदवार और छोटी पार्टियां भी मैदान में हैं। नेशनल इंडिपेंडेंट पार्टी भी कई सीटों पर पुरानी पार्टियों को चुनौती दे रही है। भारत की नेपाल के इस राजनीतिक घटनाक्रम पर नजर है। भारत के अपने पड़ोसी नेपाल से हमेशा मजबूत संबंध रहे हैं लेकिन हाल के वर्षों में तल्खी आई है। इसकी वजह पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली का वादा भी काफी हद तक जिम्मेदार है। उन्होंने लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधारा को नेपाल में शामिल करने का वादा किया था। भारत इन्हें उत्तराखंड प्रांत का हिस्सा मानता है। 2015 में नेपाल ने संविधान में बदलाव किया था। इसके बाद भारत ने नेपाल से दूरी बना ली थी। 2018 से लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधारा की वजह से जारी तनाव अब तक पूरी तरह शांत नहीं हुआ है। नेपाल और चीन के बीच बढ़ती दोस्ती ने इस तनाव की लपटों को तेज किया है।
बहरहाल नेपाल में राजनीतिक स्थिरता सबसे बड़ी समस्या है। पांच साल का कार्यकाल पूरा किए गिरती सरकारों से देश राजनीतिक संकट से जूझ रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इन चुनावों से नेपाली जनता को कोई फायदा नहीं मिलने वाला है। राजनीतिक संकट आगे भी बरकरार रहने वाला है। कुछ विश्लेषक तो त्रिशंकु नतीजे आने की भविष्यवाणी कर चुके हैं।
चुनाव पर करीब नजर रखने वाले राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने त्रिशंकु संसद और एक ऐसी सरकार के गठन का अनुमान जताया है, जो नेपाल में आवश्यक राजनीतिक स्थिरता प्रदान नहीं कर पाएगी। नेपाल में लगभग एक दशक तक रहे माओवादी उग्रवाद के खात्मे के बाद से संसद में राजनीतिक अस्थिरता बनी हुई है और 2006 में गृह युद्ध के खत्म होने के बाद से कोई भी प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया है। नेतृत्व में बार-बार बदलाव और राजनीतिक दलों के विवाद को भी देश के धीमे आर्थिक विकास का कारण बताया जाता है।
नेपाल से सूचना है कि संघीय संसद की 275 और सात प्रांतों में विधानसभाओं की 550 सीटों के लिए बड़ी संख्या में लोगों ने मतदान किया है। संघीय संसद के कुल 275 सदस्यों में से 165 का चुनाव प्रत्यक्ष मतदान के जरिये होगा, जबकि शेष 110 को आनुपातिक मत प्रणाली से चुना जाएगा। इसी तरह प्रांतीय विधानसभाओं के कुल 550 सदस्यों में से 330 का चुनाव प्रत्यक्ष मतदान से होगा, जबकि 220 का आनुपातिक मत प्रणाली से चुने जाएंगे। इस बार चुनाव में मौजूदा प्रधानमंत्री देउबा के नेतृत्व में सत्ताधारी गठबंधन और पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के नेतृत्व में विपक्षी गठबंधन ने मतदाताओं को लुभाने के लिए एक जैसे वादे किए हैं। सत्ताधारी गठबंधन ने हर वर्ष 2.5 लाख नौकरी और विपक्षी गठबंधन ने पांच लाख नौकरी देने के साथ सुशासन, जवाबदेह व पारदर्शी सरकार का वादा किया है। चीन का दखल और सीमा-विवाद भी बड़ा मुद्दा है। इसके अलावा भारत और चीन दोनों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखना भी चुनाव वादों में शामिल है।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)