– डॉ. हरवंश दीक्षित
नीट में लापरवाही के आरोपों और इलेक्ट्रानिक मीडिया के बीच एक और खबर आयी। अपनी फटी ओएमआर सीट दिखाते हुए भावुक आरोप लगाने वाली छात्रा आयुषी पटेल की याचिका पर उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने उसे फर्जी पाया। अदालत के सामने प्रस्तुत दस्तावेजों की जांच के बाद यह पाया गया कि छात्रा ने फर्जी एप्लीकेशन नम्बर से एनटीए को मेल किया था। लखनऊ बेंच ने छात्रा के रवैये को अफसोसजनक बताते हुए याचिका को खारिज कर दिया और यह भी कहा कि एनटीए चाहे तो छात्रा के खिलाफ उपयुक्त कार्रवाई कर सकता है। इस तरह की परीक्षाओं में करोड़ों लोगों का भविष्य जुड़ा रहता है। राष्ट्रहित में यह जरूरी है कि उनके संचालन में पूरी शुचिता बरती जाए, किन्तु अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए इलेक्ट्रानिक मीडिया जिस तरह से समानान्तर अदालती व्यवस्था खड़ी कर देती है, उससे ऐसे सामाजिक दबाव का सृजन होता है कि वह न्याय की प्रक्रिया को नुकसान पहुंचाता है। बिना सुबूत और अदालती निर्णय के ही समाज की निगाह में लोगों को दोषी ठहरा देता है। कुछ समय बाद चाहे भले ही अदालत उन्हें निर्दोष ठहरा दे, किन्तु उनकी जो प्रतिष्ठा खो चुकी होती है, वह कभी भी वापस नहीं आती।
बीते वर्षों में रिया-सुशांत, आरुषि-तलवार की हत्या और दिल्ली के जसलीन कौर-सर्वजीत कौर के मामले ऐसे कई उदाहरणों में से कुछ गिनाए जा सकते हैं, जब इलेक्ट्रानिक मीडिया ने अपनी टीआरपी के लिए लोगों को अपूर्णीय क्षति पहुंचायी है। रिया-सुशान्त के मामले में इलेक्ट्रानिक मीडिया ने रिया को कहीं का नहीं छोड़ा। खुद ही सुबूत इकट्ठा करके उसके ऊपर जादू-टोना से लेकर कई काल्पनिक आरोप लगाए। अदालत ने उन्हें नाकाफी और अविश्वसनीय माना, किन्तु रिया उससे अब तक नहीं उबर पायी और लांछन उनके साथ सदैव के लिए चस्पा हो गया। इसी तरह आरुषि हत्याकांड में इलेक्ट्रानिक मीडिया ने उसके मां-बाप को जीते जी मार डाला।
बगैर किसी पुख्ता सुबूत और अदालती निर्णय के आरुषि की मौत के बाद उसके चरित्र पर जिस तरह छींटाकशी की गई, वह किसी भी सभ्य समाज के लिए कलंक है। राजेश और नुपूर तलवार मीडिया के सामने गिड़गिड़ाते रहे कि उन्हें परेशान न किया जाए, किन्तु उनकी किसी ने एक नहीं सुनी और अपनी टीआरपी के लिए नित नई कहानियां तैयार करते रहे। नौ साल की यन्त्रणादायक कानूनी लड़ाई के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उन्हें बरी कर दिया, किन्तु इलेक्ट्रानिक मीडिया ने उन्हें समाज में रहने लायक नहीं छोड़ा।
नीट से जुड़े मामले सर्वोच्च अदालत के सामने हैं। अदालत सभी पहलुओं पर गौर कर रही है, किन्तु इलेक्ट्रानिक मीडिया ने समान्तर अदालती व्यवस्था खड़ी कर ली है। उसमें उनके अभियोजक और गवाह हैं। निर्णय लेने की जिम्मेदारी उन्होंने खुद ले ली है। जानकारी की कमी या टीआरपी के दबाव में उन लोगों को भी दोषी ठहराया जा रहा है, जो केवल औपचारिक प्रमुख की भूमिका में है। मसलन एनटीए के अध्यक्ष का पद विश्वविद्यालयों के चांसलर की तरह होता है। नीति निर्माण या क्रियान्वयन में उसकी कोई भूमिका नहीं होती, किन्तु मीडिया बगैर सुबूत के ही उन्हें मुजरिम की तरह पेश कर रहा है। यह जब किसी विषय पर अदालत विचार कर रही हो तो इस तरह का मीडिया ट्रायल न्यायिक कार्यों में दखलंदाजी और अदालत की अवमानना है।
न्यायशास्त्र का आधारभूत सिद्धांत यह है कि किसी व्यक्ति को तब तक निर्दोष माना जाएगा जब तक उसे अदालत द्वारा दोषी साबित न कर दिया जाए, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ऊपर यह नियम लागू नहीं होता। कई बार तो वह इस तरह की व्यूहरचना तैयार कर लेता है कि अभियुक्त के खिलाफ एक सामाजिक माहौल तैयार हो जाता है और मुकदमे के अदालत में जाने से पहले ही अभियुक्त दोषी ठहरा दिया जाता है। विधि आयोग ने 2006 में जारी अपनी 200 पेज की रिपोर्ट में मीडिया ट्रायल अभिव्यक्ति की आजादी तथा निष्पक्ष न्याय के अन्तर्सम्बन्धों पर विस्तार से चर्चा की थी।
आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष न्यायमूर्ति एम जगन्नाथराव ने मत व्यक्त किया था कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव के कारण समाचारों के प्रसारण का स्वरूप बदला और उसका असर कई बार अभियुक्तों, गवाहों और यहां तक कि न्यायाधीशों पर पड़ता है। किसी भी व्यक्ति को अदालती फैसले से पहले फैसला सुनाने की इजाजत नहीं होनी चाहिए। विधि आयोग ने इस बात पर चिंता व्यक्त की थी कि इस तरह के मीडिया ट्रायल से निष्पक्ष न्याय पाने के अधिकार में गैरवाजिब दखलंदाजी हो रही है, जो न्यायालय अवमानना कानून 1971 की मंशा के विरुद्ध है।
न्यायालय अवमानना कानून की धारा 2 में अवमानना को परिभाषित किया गया है। ऐसा कोई भी प्रकाशन जो न्यायिक कार्यवाही या न्याय प्रशासन में दखलंदाजी करता हो या उस पर प्रतिकूल असर डालता है, वह अदालत की आपराधिक अवमानना की श्रेणी में आता है। मीडिया ट्रायल द्वारा न केवल समानांतर जांच की कार्यवाही की जा रही है, अपितु तमाम विशेषज्ञों को बुलाकर उसके फॉरेंसिक और कानूनी पहलुओं पर इस तरह की चर्चा की जा रही है, जिससे कई लोगों को अपराधी साबित किया जा सके। इस सामाजिक दबाव के सामने निष्पक्ष जांच करना और फिर उस पर निष्पक्ष निर्णय देना आसान काम नहीं है। मुकदमें के सम्यक विचारण के बाद यदि अदालत उन लोगों के खिलाफ सुबूत न मिलने पर छोड़ देता है, जैसा कि आरुषि और सर्वजीत के मामले में हुआ तो आम आदमी के मन में मीडिया द्वारा बनायी गयी अवधारणा इतनी पुख्ता होती है कि उसका अदालत के प्रति विश्वास कम हो जाए तो आश्चर्य नहीं।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का इस तरह का आचरण केवल समाज या अभियुक्त के निष्पक्ष न्याय पाने के अधिकार को ही प्रभावित नहीं कर रहा है। इससे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की साख पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। लोकतांत्रिक संस्थाओं की बुनियाद उनकी निष्पक्षता और सत्यनिष्ठा पर टिकी होती है। अपनी साख को बनाए रखने के लिए उन्हें सदैव सजग रहना पड़ता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने विकास के ऐसे पड़ाव पर है, जब उसे अपनी साख और प्रतिष्ठा को मजबूत करना है। इसके लिए उसे मसालेदार ख़बरों की जगह तथ्य परक और संतुलित ख़बरों पर ध्यान देना होगा। उसे अभिव्यक्ति की आजादी और अभियुक्त के न्याय पाने के अधिकार के बीच सामंजस्य बनाना होगा। मीडिया ट्रायल की मौजूदा प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना होगा।
(लेखक, तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय मुरादाबाद में लॉ कॉलेज के डीन हैं।)