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राष्ट्रकवि दिनकर: ममत्व तथा परत्व से अविचलित रहकर चिंतन की निष्ठा

– सुरेन्द्र किशोरी

मात्र 20 साल की उम्र में 1928 में बारदोली विजय से लेकर रेणुका, हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, दिल्ली, सूरज का ब्याह, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, हारे को हरिनाम और भारत के गौरव ग्रंथ संस्कृति के चार अध्याय तक सामने लाने वाले हिंदी साहित्य के सूर्य राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर आज जीवित होते तो 23 सितम्बर को 114 वर्ष के हो गए होते। दिनकर आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन राष्ट्र कवि के रूप में हिंदी साहित्य के कण-कण में व्याप्त होकर ना केवल जनमानस को समय की सच्चाई बताते रहते हैं, बल्कि उन्हें याद दिलाते रहते हैं कि समय कैसा भी कठिन हो अपना कर्तव्य पथ मलीन नहीं होने देना।

देशभर के साहित्यकारों के दिलोदिमाग पर छाए रामधारी सिंह दिनकर आज अपने जनपद के बच्चे-बच्चे के जेहन में बसे हुए हैं। 26 जनवरी 1950 को लाल किले के प्राचीर से समय की वेदना को देखते हुए रामधारी सिंह दिनकर ने पढ़ा था- ”सदियों की ठंडी बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है। दो राह समय के रथ का घर्घर नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।” यह कविता पढ़ते ही पूरे परिदृश्य में एक सन्नाटा खिंच गया था। समय की आने वाली पदचापों का स्पष्ट आभास दिनकर जी को था। भाषा और भावों के ओज का अद्भुत संयोजन दिनकर की कविता में था। वह न तो उनके समकालीनों में था और ना ही बाद की हिंदी कविता में देखने को मिलता है।

अपनी कविता से राष्ट्र प्रेमियों को प्रेरणा देकर, उनके दिल और दिमाग को उद्वेलित कर झंकृत करने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म तत्कालीन मुंगेर (अब बेगूसराय) जिले के सिमरिया में 23 सितम्बर 1908 को मनरूप देवी एवं रवि सिंह के द्वितीय पुत्र के रूप में हुआ था। दिनकर की प्रारंभिक शिक्षा उनके गांव घर तथा पंचम से सप्तम वर्ग तक की पढ़ाई मध्य विद्यालय बारो हुआ। लेकिन आठवीं कक्षा की उच्च विद्यालय की पढ़ाई करने के लिए 15 किलोमीटर पैदल चलकर गंगा के पार मोकामा उच्च विद्यालय जाना होता था, कभी तैरकर तो कभी नाव से जाने की मजबूरी थी। 1928 में मोकामा उच्च विद्यालय से प्रवेशिका पास करने बाद इनका नामांकन पटना विश्वविद्यालय के पटना कॉलेज पटना में इतिहास विभाग में हो गया। 1932 में वहां से प्रतिष्ठा की डिग्री हासिल कर 1933 में बरबीघा उच्च विद्यालय मैं प्रधानाध्यापक पद से नौकरी शुरू की। जब संविधान सभा का प्रथम निर्वाचन हुआ तो दिनकर जी को तेजस्वी वाणी, प्रेरक कविता एवं राष्ट्र प्रेरक कविता की धारणा के कारण कांग्रेस द्वारा राज्यसभा सदस्य मनोनीत कर दिया गया। पहली बार 1952 से 58 तक तथा इसके बाद 1958 से 63 तक दूसरी बार राज्यसभा के सदस्य रहे। 1963 से 1965 तक भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति और 1965 से 1972 तक भारत सरकार के हिंदी विभाग में सलाहकार रहे।

राष्ट्रकवि दिनकर की कविता की सबसे बड़ी विशेषता थी कि वह महाभारत के संजय की भांति दिव्यदृष्टि से प्रत्यक्षदर्शी के रूप में वेदना, संवेदना एवं अनुभूति के साक्षी बनकर काव्यात्मक लेखनी को कागजों पर मर्मस्पर्शी ढंग से उतारा करते थे। राष्ट्रकवि दिनकर के साहित्य सृजन की विजय संदेश से हुआ था। उसके बाद प्रणभंग तथा सबसे अंतिम कविता संग्रह 1971 में हारे को हरि नाम। कविता के धरातल पर बाल्मीकि, कालिदास, कबीर, इकबाल और नजरुल इस्लाम की गहरी प्रेरणा से राष्ट्रभक्त कवि बने। उन्हें राष्ट्रीयता का उद्घोषक और क्रांति के नेता सभी ने माना। रेणुका, हुंकार, सामधेनी आदि कविता स्वतंत्रता सेनानियों के लिए बड़ा ही प्रेरक प्रेरक सिद्ध हुआ था। कोमल भावना की जो धरा रेणुका में प्रकट हुई थी, उर्वशी के रूप में भुवन मोहिनी सिद्धि हुई। कहा जाता है कि दिनकर की उर्वशी हिंदी साहित्य का गौरव ग्रंथ है। धूप छांव, बापू, नील कुसुम, रश्मिरथी का भी जोर नहीं। राष्ट्रप्रेम एवं राष्ट्रीय भावना का ज्वलंत स्वरूप परशुराम की प्रतीक्षा में युद्ध और शांति का द्वंद कुरुक्षेत्र में व्यक्त हो गया।

संस्कृति के चार अध्याय जैसे विशाल ग्रंथ में भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम दर्शाया। जो उनकी विलक्षण प्रतिभाओं का सजीव प्रमाण है। संस्कृति के चार अध्याय की भूमिका में प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संस्कृति को मन, आचार अथवा रुचियों की परिष्कृति या शुद्धि और सभ्यता का भीतर से प्रकाशित हो उठना माना है। ओज, राष्ट्रीयता और निर्भीक वैचारिकता के प्रणेता राष्ट्रकवि दिनकर अपनी कविता में भावपरकता के आधार पर जिस सांस्कृतिक चेतना से प्रेरित हैं, वही उनकी महत्त्वपूर्ण कृति ”संस्कृति के चार अध्याय” में विवेचन और विश्लेषण के रूप में समाहित है। यह ऐसा समाजशास्त्रीय इतिहास है, जिसमें तटस्थता और वस्तुपरकता से निकले निष्कर्षों की प्रामाणिकता है और ममत्व तथा परत्व से अविचलित रहकर चिंतन की निष्ठा है।

संस्कृति के इस महाग्रंथ में दिनकर का अध्ययन विस्तार और संदर्भो का अंतरिक्ष चमत्कृत करता है। दिनकर भले ही इसे इतिहास नहीं, बल्कि साहित्य का ग्रंथ कहें, लेकिन वह भारतीय संस्कृति का क्रमिक इतिहास ही है और वह भी इतिहास-लेखन की दृष्टिसंपन्नता के साथ। दिनकर के विवेचन की पद्धति यह है कि वे विभिन्न मुद्दों पर विद्वानों के मतों का उल्लेख करते हैं और फिर उनमें से सही मत के पक्ष में निर्णय लेते हैं। वे तर्क और प्रमाण के बिना सपाट तरीके से निष्कर्ष तक नहीं पहुंचते। दिनकर ने कहा है कि भारतीय संस्कृति का मूल तत्त्व सामाजिकता है। अपने इसी विचार के प्रतिपादन में उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता उद्धृत की है यहां आर्य हैं, द्रविड़ और चीनी वंश के लोग हैं। शक, हूण, पठान, मुगल आए और सब एक ही शरीर में समाकर एक हो गए। इन सबके मिलन से भारतीय संस्कृति को अनेक संस्कृतियों के योग से बना हुआ मधु कहा जा सकता है।

दिनकर सच्चे अर्थों में मां सरस्वती के उपासक और वरदपुत्र थे। उन्होंने उर्वशी में कहा है ”मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं, उर्वशी अपने समय का सूर्य हूं मैं”। दिनकर की प्रासंगिकता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष उनका साम्राज्यवाद विरोध है। हिमालय में लिखते हैं ”रे रोक युधिष्ठिर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्गधीर, पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर”। दिनकर को शांति का समर्थक अर्जुन चाहिए था। रेणुका में लिखते हैं ”श्रृण शोधन के लिए दूध बेच बेच धन जोड़ेगें, बुंद बुंद बेचेंगे अपने लिए नहीं कुछ छोड़ेंगे, शिशु मचलेगें, दूध देख जननी उनको उसको बहलाएगी”। हाहाकार के शीर्षक में ही है ”हटो व्योम के मेघ पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं, दूध दूध वो वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं”। परशुराम की प्रतीक्षा का एनार्की 1962 के चीनी आक्रमण के बाद की भारतीय लोकतंत्र वास्तविकता को उजागर करते हुए कहती है ”दोस्ती ही है देख के डरो नहीं, कम्युनिस्ट कहते हैं चीन से लड़ो नहीं, चिंतन में सोशलिस्ट गर्क है, कम्युनिस्ट और कांग्रेस में क्या फर्क है, दीनदयाल की जनसंघी शुद्ध हैं, इसलिए आज भगवान महावीर बड़े क्रुद्ध हैं।”

आजादी की वर्षगांठ पर 1950 में दिनकर के नेता ने राजनीति के दोमुंहेपन, जनविरोधी चेतना और भ्रष्टाचार की पोल खोल दिया था। ”नेता का अब नाम नहीं ले, अंधेपन से कम नहीं ले, मंदिर का देवता, चोरबाजारी में पकड़ा जाता है”। रश्मिरथी से समाज को ललकारा है ”जाति जाति रटते वे ही, जिनकी पूंजी केवल पाखंड है। कुरुक्षेत्र में समतामूलक समाज के उपासक के रूप में लिखते हैं ”न्याय नहीं तब तक जबतक, सुख भाग न नर का समहो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।”

दिनकर जी की रचनाओं के अनुवाद विभिन्न भारतीय भाषाओं में तो व्यापक रूप से आए ही हैं। विदेशी भाषाओं में भी उनके अनुवाद हुए हैं। एक कविता संग्रह रूसी भाषा में अनूदित होकर मास्को से प्रकाशित हुआ तो दूसरा स्पेनी भाषा में दक्षिण अमेरिका के चाइल्ड में। कुरुक्षेत्र का तो कई अनुवाद कई भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होता रहा। दिनकर जी आजीवन संघर्षरत रहे। साहित्य और राजनीति दोनों के बीच उनका मन रमता था। इन दोनों ही क्षेत्र में उनको सफलता भी मिली तथा देश में क्रांति का बिगुल बजाने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर को युगों-युगों तक याद किया जाता रहेगा।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)